tag:blogger.com,1999:blog-64409886279318730892024-03-13T22:26:01.074-07:00main santur nahin bajatayah blog mujhe jo rachanayen achchhi lagati hai ya jo mujhe priy hai.ya jo koi naya mahatvapurna hoga usake liye banaya hai.Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-29328641168540940362012-11-06T10:28:00.001-08:002012-11-06T10:28:52.750-08:00पावों में भंवरा<a href="http://srijangatha.com/%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-1Nov-2012#.UJlWuJ0uJxI.blogger">पावों में भंवरा</a>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-85610347151465715242010-08-23T08:56:00.000-07:002010-08-23T09:33:58.484-07:00अनुज लुगुन की कविता<span style="font-size:180%;"><span style="color:#cc0000;"><strong>आदिवासी </strong></span></span><br /><strong></strong><br /><br />वे जो सुविधा भोगी हैं<br />या मौका परस्त हैं<br />या जिन्हें आरक्षण चाहिए<br />कहते हैं हम आदिवासी हैं ,<br />वे जो वोट चाहते हैं<br />कहते हैं तुम आदिवासी हो ,<br />वे जो धर्म प्रचारक हैं<br />कहते हैं<br />तुम आदिवासी जंगली हो ।<br />वे जिनकी मानसिकता यह है<br />कि हम ही आदि निवासी हैं<br />कहते हैं तुम वनवासी हो ,<br /><br />और वे जो नंगे पैर<br />चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में<br />कभी नहीं कहते कि<br />हम आदिवासी हैं<br />वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से<br />अपना इलाज करना<br />वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से<br />मौसम का मिजाज समझना<br /><span>सारे पेड़-पौधे , पर्वत-पहाड़ </span><br /><span>नदी-झरने जानते हैं </span><br /><span>कि वे कौन हैं । </span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-78826268846160787482010-05-10T10:45:00.000-07:002010-05-10T11:11:43.121-07:00एकांत श्रीवास्तव की कविता<span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:180%;">बीज थी हमारी इच्छाएँ</span> </span><br /><br /><span style="font-size:130%;">बीज थी हमारी इच्छाएँ<br />जिन्हें मिली नहीं गीली ज़मीन<br />हारिल थे हमारे स्वप्न भटकते यहाँ-वहाँ<br /><span class="">मरुस्थल थे हमारे दिन </span><br /><span class="">जिन पर झुका नहीं कोई मेघ </span><br /><span class="">अँधा कुआ थी हमारी रात </span><br /><span class="">जहाँ किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आती थी </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">समुद्र के ऊपर </span><br /><span class="">तट के लिए फडफडाता </span><br /><span class="">पक्षी था हमारा प्रेम </span><br /><span class="">जो हर बार थककर </span><br /><span class="">समुद्र में गिर जाता था </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">हम वाध्य की तरह बजना चाहते थे </span><br /><span class="">घटना चाहते थे घटनाओं की तरह </span><br /><span class="">मगर हमारी तारीख़ें कैलेण्डर से बाहर थी । </span></span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-43689036485657314512009-10-11T12:08:00.000-07:002009-10-11T13:06:19.409-07:00सत्यनारायण पटेल का समयांतर में छापा आलेख<span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;">प्रगतिशील होने की </span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></span><br /><div align="justify"><span style="font-size:180%;"><span style="color:#000099;">क़ीमत चुकानी पड़ती है</span> </span><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br />ख़ुद को वामपंथी या प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता कहना बहुत आसान है। लेकिन इससे कई गुना कठिन है, इस राह पर सतत चलते रहना। वामपंथी रचनाकार या कार्यकर्ता होने की बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब किसी भी कार्यकर्ता या रचनाकार के जीवन में क़ीमत चुकाने का क्षण आता है, वह उसकी असल परीक्षा की घड़ी होती है। तब कुछ तो अपने सारे सुख हार कर आगे बढ़ जाते हैं, कुछ लड़खड़ा जाते हैं, और यह बुदबुदाते हुए अपनी राह बदल लेते हैं कि सोचा था- लिखेंगे-पढ़ेंग, संघर्ष करेंगे और अपना होना सिद्ध करेंगे। फिर अपने होने की शोहरत और क़ीमत वसूलेंगे। लेकिन जब यथार्थ से आँखें चार होती हैं, और दूर तक भूख और अभाव का साम्राज्य नज़र आता है, तो पस्त हो जाता है। उस वक़्त उसे जो चमकीली और आकर्षित करने वाली राह दिखाई पड़ती है, उसी पर वह चल पड़ता है। यह तो मैं ऎसे नवोदित रचनाकार या कार्यकर्ता के बारे में बात कर रहा हूँ, जो वामपंथी या प्रगतिशील बनने की प्रक्रिया में होता है।<br />लेकिन जब किसी पर यह ठप्पा लग चुका होता है। उसकी सार्वजनिक छवि वामपंथी, प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता की बन चुकी होती है, तब उसे क़दम-क़दम पर वामपंथी होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है और इसमें अच्छे-अच्छों के छिलके उतर जाते हैं या कहो नानी याद आ जाती है। और अगर किसी प्रगतिशील, वामपंथी, जनवादी आदि..आदि.. का कोई मुखिया है, तो उसे ऎसी मिसालें क़ायम करनी पड़ती हैं, जिनके नये साथियो, सर्वहारा और आमजन के समक्ष पीढ़ी दर पीढ़ी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सके।<br />लेकिन आज देश में साहित्यिक, साँस्कृतिक आँदोलन बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है। मैं समझता हूँ कि किसी भी साँस्कृतिक, साहित्यिक और जन आँदोलन का स्वर्णिम दौर वह होता है, जिसमें वह सबसे कठिन, महत्त्वपूर्ण और कारगर संघर्ष करता है। लेकिन अफसोस कि कुछ कर गुज़रने की उदात्त इच्छा से भरे कई कार्यकर्ता और रचनाकार मौजूद होने के बावजूद शून्या बटा सन्नाटा है। जबकि यह ऎसा वक़्त है- जब साम्राज्यवादी ताक़त मंदी की मार से घायल पड़ी है।<br />आज साँस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक हर मोर्चे पर वामपंथी काम कर रहे हैं। जिनकी आँखों में समाजवाद का सपना झिलमिलाता है, वह एक बड़ी संख्या है, पर बिखरी हुई है और कई जगहों पर आपस में ही लड़-भिड़ एक दूसरे को कमज़ोर कर रही है। साम्राज्यवादी ताक़ते भी यही चाहती हैं कि उनका विरोध करने वाली विवेकवादी और संघर्षशील ताक़ते आपस में लड़-भिड़ कर अपना वक़्त, उर्जा और कार्यकर्ताओं को नष्ट करती रहे। जिससे साम्राज्यवादी सत्ता आसानी से अपनी जनविरोधी नीतियों के अनुरूप काम करती रह सके। ज़रूरत तो यह है कि इस बिखरी हुई ताक़त को इक्कठा कर साम्राज्यावाद के ख़िलाफ़ अजेय संघर्ष किया जाये। लेकिन राजनीतिक अपरिपक्वता और सत्ता से निकटता की महत्त्वकाँक्षा से लिथड़े नेतृत्व के चलते सबकुछ मटियामेट होता नज़र आ रहा है। वामपंथ, प्रगतिशील, जनवादी और आदि..आदि.. का नेतृत्व करने वाले कई एक बाद एक लगातार ऎसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे उनकी प्रतिबद्धता पोंची और लालची सिद्ध हो रही है। उनका विवेकवादी होना संदेहास्पद लगने लगा है। उनके कार्यकर्ताओं का, उनके रचनाकारों का उन पर से भरोसा उखड़ रहा है। कुछ साहित्यिक संगठनों की स्थितियाँ तो इस हद तक बिगड़ गयी है कि एक छोटे रचनाकार और कार्यकर्ता के द्वारा सवाल पूछने को अनुशासनहीनता माना जाने लगा है।<br /><br />लेनिन की एक बात शब्दसः तो याद नहीं आ रही है, पर उसकी बात का मतलब याद आ रहा है, जो कुछ ऎसा है- व्यवस्था परिर्वतन की गतिविधि में लगा संगठन जब अपने साथियो का चुनाव करता है, तो उसे बहुत सतर्क होने की ज़रूरत होती है। चुनाव करते वक़्त ध्यान रखना चाहिए कि उसका दस सही साथियो को रिजक्ट कर देना छोटी भूल-ग़लती होगी, बनिस्बत एक ग़लत साथी का चुनाव कर लेने के। मुझे लगता है इन विवेकवादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों से इतिहास में कुछ ऎसी ही चूकें हुई हैं, जिनका खामियाजा पूरे वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन को भोगना पड़ रहा है। बात आज या कल की नहीं, कुछ लोगों का संगठन के भीतर सम्पूर्ण कार्यकाल संदेह के दायरे में रहा है।<br />कुछ कभी काँग्रेस के शासन काल में (सरकारी नौकरी के अलावा) सरकारी कला अकादमियों, साहित्यिक परिषदों, साहित्य अकादमियों, पीठों आदि..आदि संस्थाओं के पदों पर विराजमान होते रहे हैं। और यहाँ के साधन सुविधाओं का ख़ुद तो इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन इन्हीं साधन और सुविधाओं से विवेकवादी साहित्यिक, साँस्कृतिक संगठनों के भीतर कच्ची-पक्की समझ के रचनाकार या कार्यकर्ता को किसी न किसी तरह से ओबलाइज कर भ्रष्ट बनाने का भी काम करते रहे हैं। जिन्हें ये भ्रष्ट नहीं बना सके। जो इनके द्वारा फैलाये लालच के ज़ाल में फँसने से बचते रहे, उन्हें संगठन के भीतर कुचलने के प्रयास किये जाते रहे हैं। ऎसे साथियो की न केवल रचनाओं की उपेक्षा की जाती रही है, बल्कि उनके द्वारा संगठन के भीतर किये गये रचनात्मक कामों की भी उपेक्षा, आलोचना और असहयोग किया जाता रहा है। उन्हें इस हद तक मानसिक संत्रास दिया जाता है कि उनके सामने इनसे समझौता करने या आत्महत्या करने के सिवा कोई आसान रास्ता नहीं होता है। कुछ संगठनों के राज्य सम्मेलनों, जिला सम्मेलनों में पदों की चाह में मंच पर हाथापाई और गोली चलने तक के उदाहरण मौजूद हैं। इससे ज़्यादा निंदनीय और क्रूर स्थितियाँ, और क्या होगी ? यह संतोष की बात है कि अभी तक कोई जन हानी का उदाहरण सामने नहीं आया, लेकिन कभी आया भी तो आश्चर्यजनक न होगा।<br />लेकिन मैं फिर कहूँगा इन सब परिस्थितियों के बावजूद, प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार वही है, जो ऎसी तमाम टुच्ची और ओछी हरक़तों से पार पाकर भी दुनिया की बेहतरी के लिए लिखे और काम करे। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार होने की क़ीमत क़दम-क़दम पर चुकानी पड़ती है और यह सिलसिला आख़िरी सांस तक ज़ारी रहता है।<br /><br />ये बात सही है कि साम्राज्यावादी ताक़तें बहुत ज़्यादा ताक़तवर और साधन सम्पन्न हैं, क्योंकि सत्ता उनके क़ब्जे में है। वह समय-समय पर तमाम तरह के प्रलोभन दिखाती है, जो छद्म प्रगतिशील या जनवादी होते हैं वे इन प्रलोभानों को देख लार टपकाने लगते हैं। हालाँकि ये प्रलोभन छोटे-मोटे पद, पुरस्कार, और कई बार तो साहित्यिक आयोजनों में बुलावे भर ही होते हैं। लेकिन जिसे सत्ता द्वारा फैंकी हड्डी का टुकड़ा चबाने की लत लग जाती है, वह ऎसे मामूली लालच को भी त्याग नहीं पाता है और वह इनमें शामिल होने की कोई तार्किक वजह खोज लेता है।<br />साम्राज्यवादी सत्ता कभी भी समझौता नहीं करती है। वह किसी क़ीमत पर यह नहीं कहती है कि अगर आप हमारे आयोजन में शामिल होंगे तो हम आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को उनके गाँव, घर, खेत, जंगल, ज़मीन से खदेड़ना बंद कर देंगे। सत्ता हमेशा लालची और छद्म प्रगतिशीलों, जनवादियों को कभी कंडोम और कभी नक़ाब की तरह युज करती है। मैं समझता हूँ कि हाल ही में (10-11 जुलाई 09 को) छत्तीसगढ़ के रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित ‘ राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी’ आयोजन भी कुछ इसी तरह की मंशा के साथ आयोजित किया गया था।<br />अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, सन 2000 में ही छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हुई है। स्थापना के बाद वहाँ की सरकारों ने समय-समय पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जो अनेक समझौते और वादे किये हैं उन्हीं को पूरा करने की उतावल की ख़ातिर आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को खदेड़ने का काम ज़ोर-शोर से ज़ारी है।<br />यह आयोजन उसी रायपुर में आयोजित किया गया था, जहाँ बेवजह डॉ. विनायक सेन को दो बरस तक जेल में सलाखों के पीछे रखा गया। उसी राज्य में जहाँ दंतेवाड़ा प्रशासन द्वारा गुंडई ढंग से 17 मई 09 को गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का आश्रम तोड़ दिया गया। उसी राज्य में जिसमें पिछले चार बरसों से सतत सलवा जुडूम के मार्फत न सिर्फ़ आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों, बल्कि औरतों और बच्चों तक को उनके संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखा जा रहा है।<br />भूखे, मज़दूर, किसान और आदिवासी, जो अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों को हासिल करने को, जो अपने जंगल, ज़मीन, गाँव, घर और ज़िन्दगी बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। उन्हीं की माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी के साथ कभी दिन के उजाले में और कभी रात के अंधेरे में सलवा जुडूम के विशेष पुलिस अधिकारी बलात्कार कर रहे हैं।<br /><br />एक तरफ़ देश की सर्वोच्य न्यायालय के न्यायाधीश श्री अरिजीत पसायत और पी. सथसिवम, जुलाई 2008 को कहते हैं कि भारत में जैसी परिस्थितियाँ हैं उनमें शारीरिक दुर्व्यवहार की शिकार किसी महिला के बयान पर इस नियम के तहत कार्यवाही से इनकार करना कि इसकी पुष्टि करने के लिए कोई दूसरा सबूत नहीं है, घाव पर नमक छिड़कने जैसी बात है। परंपराओं से बंधे भारतीय समाज में कोई लड़की या महिला ऎसी किसी घटना को मानने तक के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगी, जिससे उसके चरित्र पर कीचड़ उछलने की संभावना हो। पीड़िता के बयान की पुष्टि के लिए किसी दूसरे सबूत की ज़रूरत नहीं है, जिसमें डॉक्टर द्वारा पुष्टि भी शामिल है। दूसरी तरफ़ जब सर्वोच्य न्यायालय पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से कहा कि वह सलवा जुडूम के लोगों पर हत्या, बलात्कार और आगजनी के जो आरोप लगे हैं उनकी जाँच करे। लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘कुछ विशेष आरोपों की जाँच के दौरान जाँच दल को बलात्कार का कोई भी ऎसा मामला नहीं मिला, जिसका कोई सबूत हो।<br />जब न्यायाधीश अपने कथन में कह ही चुके हैं कि बलात्कार के मामले में पीड़िता का बयान ही पर्याप्त है, तब मानवाधिकार के सदस्यों को सबूत ढूंढ़ने की ज़रूत ही क्या थी ? पीड़िताओं के बयानों को ही सबूत मानना चाहिए था। तहलका (15 अगस्त 09) को जिन बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान छपे हैं उन्हें पढ़ने के बाद किसी सबूत की ज़रूत महसूस करना अमानवीय है।<br />मैं उसी राज्य की बात कर रहा हूँ जिसमें मुक्तिबोध की किताब ‘भारतः इतिहास और संस्कृति’ आज तक प्रतिबंधित है। जिसमें चरण दास चोर 8 अगस्त 09 को प्रतिबंध लगाया गया है। जिसमें क़रीब 644 गाँव से आदिवासियों, किसानों और मज़दूरों खदेड़ा जा चुका है। जिसमें क़रीब पचास हज़ार से ज़्यादा लोगों को ज़बरन विस्थापित कर शिविरों में रहने को विवश किया जा रहा है, और वहाँ भी न उनकी बहू, बेटी, पत्नी की इज़्ज़त सुरक्षित है, न जान। जिस राज्य में दमन की कोई सीमा नहीं है। यह खेल काँग्रेस और भाजपा मिलकर खेल रही हैं। कार्पोरेट घरानों को ख़ुश करने के लिए यह सब किया जा रहा है, ऎसे राज्य के मुख्य मंत्री और उन सब लोगों के साथ आयोजन में शामिल होना, जो इस काम को अंजाम दे रहे हैं। मुझे लगता है कि इससे ज़्यादा किसी की चेतना का पतन नहीं हो सकता। यह बहुत ही शर्मनाक और घृणित काम है।<br />प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान आयोजन में कौन-कौन वामपंथी, जसम, जलेस और प्रलेसं के रचनाकार और मुखिया शामिल हुए ? समयांतर में छपे दोनों लेखों में उनके नामों का ज़िक्र नहीं हैं, जबकि होना चाहिए था। ताकि लोग उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह करे, जो शामिल हुए, न की संगठन की प्रगतिशीलता पर। मेरे पास शामिल हुए लोगों की कोई आधिकारिक सूचना या जानकारी नहीं है। लेकिन श्री प्रणय कृष्ण, श्री पंकज चतुर्वेदी के लेख और पंकज बिष्ट के संपादकीय पर अविश्वास की भी तो कोई वजह नहीं है। फिर प्रलेसं के ही कई साथियो ने इस संबंध में मुझसे बात की है और अपना रोष व्यक्त किया है।<br /><br />ऎसी स्थिति में इस पूरे मामले में मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि म.प्र. प्रलेसं, की इन्दौर इकाई का सचिव होने के नाते, और म.प्र. प्रलेसं का राज्य उपमासचिव होने के नाते, उस आयोजन में अगर जसम, जलेस, प्रलेसं के रचानाकार शामिल हुए हैं , तो मैं संगठनों की नहीं, उन रचनाकारों की कड़ी नींदा करता हूँ जो शामिल हुए हैं, और उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह व्यक्त करता हूँ।<br />सत्यनारायण पटेल<br />एम-2/ 199, अयोध्यानगरी<br />इन्दौर-11 (म.प्र.)<br />09826091605<br /><a onclick="return top.js.OpenExtLink(window,event,this)" href="mailto:ssattu2007@gmail.com" target="_blank">ssattu2007@gmail.com</a></div>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-3898097352494136762009-08-31T10:26:00.000-07:002009-08-31T10:44:35.292-07:00प्रमोद उपाध्याय के नवगीत<span style="font-size:130%;">एक </span><br />सई साँझ के मरे हुओं को<br />रोयें तो रोयें कब तक<br />रीति रिवाजों की ये लाशें<br />ढोयें तो ढोयें कब तक।<br /><br />आगे सुई पीछे है धागा<br />एक कहावत रटी हुई सी<br />ये रूढ़ि या<br />कि परंपराएँ<br />संधि रेख पर सटी हुई सी।<br /><br />इल्ली लगे बीजों को<br />बोयें तो बोयें कब तक<br />अपनी साँस और धड़कन में<br />आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।<br /><br /><br />शंख सीपियों का पड़ौस हैहंस उड़ें अढ़ाई कोस है<br />घिसी-पिटी लीकों पर चलना<br />आँख मींच मक्खियाँ निगलना।<br /><br />अटक रहा है थूक गले में<br />कैसे और बिलोयें कब तक<br />मृतकों के मुख में गंगाजल<br />टोयें तो टोयें कब तक।<br /><br /><span style="font-size:130%;">दो</span><br /><br />चल पड़ी है<br />बैलगाड़ी<br />मण्डियों की ओर<br />इन गडारों से<br />नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी<br />ओंठ पर<br />मुस्कान लेकर<br />आज होरी<br />चल पड़ा है गुनगुनाता<br />मण्डियों की ओर<br />इन गडारों से।<br /><br />लगी भुगतान बिलों परअंगुठे की निशानी<br />ज्यों कि कुल्हों पर चुभी<br />ख़ुद की पिरानी<br />इस बरस भी<br />तमतमाते, स्याह ये चेहरे<br />बैरंग लौटे हैंइन गडारों से।Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-90362158094868538032009-08-09T11:07:00.000-07:002009-08-09T12:09:15.477-07:00नवगीतकार प्रमोद उपाध्याय के निधन पर<p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;"></span></span> </p><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;"></span></span> </p><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;"></span></span> </p><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;">0६.०८.०९ की रात ११.४५ के लगभग भाई प्रमोद उपाध्याय के निधन पर संदीप नाईक ने बहुत डूबकर लिखा उनके ब्लॉग से आपके लिए यहाँ भी पोस्ट कर कर रहा हूँ । </span></span></p><p><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span> </p><p><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"></span> </p><p></p><p><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#000099;">प्रमोद उपाध्याय का गुजर जाना </span></strong></span></p><p><strong><span style="font-size:180%;color:#000099;"></span></strong> </p><p><span style="font-size:180%;"><span class=""></span><strong><span style="color:#000099;">यानि कि हिन्दी के नवगीत में </span></strong></span></p><p><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#000099;"><span class=""></span></span></strong></span> </p><p><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#000099;">एक और शून्य का उपजना</span></strong></span></p><p><strong><span style="color:#000099;"></span></strong></p><p><span class=""></span> </p><p><span class=""></span> </p><p>आजकल बहादुर के फ़ोन आते ही डर लगने लगता है कि पता नही किसके मौत का पैगाम दे रहा हो । ऐसा ही कुछ आज हुआ दोपहर में बैठा कुछ काम कर रहा था कि उसका फ़ोन आया दिल धक्क से रह गया कि हो न हो मेरे अपने शहर में कुछ गंभीर हो गया है । जैसे ही फ़ोन उठाया वह बोला भाईसाहब एक बुरी ख़बर है मैंने कहा कि साला अब क्या हो गया , तो बोला कि प्रमोद का कल रात बारह बजे इंदौर में देहांत हो गया में चौक गया कि ये सब क्या हो गया, कहा तो वो भोपाल आने वाला था मुझसे हमेशा कहता था कि संदीप तेरे पास आकर रहूँगा और में हंसकर टाल देता था। देवास हमारा अपना कस्बा था जहा मै पढ़ा लिखा और सारे संस्कार लिए। लिखना पढ़ना मेरे अन्दर डालने वालो मे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, विष्णु चिंचालकर "गुरूजी", बाबा डिके, कालांतर मे जीवन सिंह ठाकुर डॉक्टर प्रकाश कान्त , प्रभु जोशी और मेरे अज़ीज़ दोस्त बहादुर पटेल और मनीष वैद्य का नाम लिए बगैर सब व्यर्थ हो जाएगा। बाद मे पता चला कि नईम और भी दीगर लेखक थे जो राष्ट्रीय स्तर पर नाम और काम के कारण जाने जाते थे। प्रमोद उपाध्याय उसी गाँव के थे, जहा मेरी माँ ने सन सत्तर के दशक मे बालिका शिक्षा के लिए अलख जगाया था भौरांसा । प्रमोद एक अच्छे नवगीतकार थे यह बाद मे पता चला, पर जब मे एकलव्य मे काम करता था तो अक्सर उनके घर पर मुलाक़ात हो जाती थी जब वो नाहर दरवाजे पर कोठारी के मकान मे रहते थे । पत्नी रेखा भी एक शिक्षिका ही थी और भौरांसा मे पढाती थी दो बच्चे थे विप्लव और पप्पी दूसरे का नाम मुझे याद नही आ रहा , प्रमोद से खूब गप्पे होती थी रवि का ख़ास दोस्त था तम्बाखू की दोस्ती कब करीबी दोस्ती मे बदल गई हमें पता ही नही चला ।धीरे धीरे प्रमोद को शराब की आदत लग गई और वह बेतहाशा पीने लगा। उसकी तबियत ख़राब रहने लगी स्कूल का जाना आना कम होता गया । हा उसके नवगीत खूब छपने लगे थे । देवास में तब लिखने पढ़ने का बहुत माहौल हुआ करता था । देश में एक जबरदस्त परिवर्तन की आंधी चल रही थी हम लोग खूब पढ़ते थे , सच कहू तो लिखने पढने का संस्कार डालने वालो में जूनून था कि एक नै पौध तैयार करना है और परिवर्त लाना है देश का समाज का विकास करना है सारी सडी गली मान्यताओ को बदलना है , एक अजीब किस्म का खुमार था हम युवाओ पर और ऐसा भी नही कि यह कोई इतिहास में पहली बार हो रहा हो । मुझे लगता है कि में बहुत भाग्यशाली हु कि मुझे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, बाबा डीके और विष्णु चिंचालकर" गुरूजी" जैसे लोगो का साथ मिला , मै कह सकता हू कि मैंने इन्हे देखा ,छुआ और इनसे सिखा है । कालांतर मै देवास मे नईमजी के साथ नवगीत क्या होता है यह जाना तब समझ आया कि मुक्तक भी परिवर्तन की एक विधा है और यदि यह छंद पुरी शिद्दत से लिखा जाए तो ना मात्र सिर्फ़ हममे परिवर्तन आता है बल्कि हमें यह दुनियादारी भी समझ आती है । डॉक्टर प्रकाश कान्त का गहरा अध्ययन , जीवन सिंह ठाकुर की पैनी राजनितिक दृष्टि , प्रभु जोशी का एक फंतासी दुनिया मे ले जाना और बार बार हम चमत्कृत से होते उन्हें सुनते रहते थे ......... मेरे प्रिय कवि चंद्रकांत देवताले का नाम लिए बगैर यह सब कैसे पुरा होगा? कुमार अम्बुज , विवेक गुप्ता हमारे मित्रो में से थे जो उन दिनों लगातार लिख रहे थे । दुनिया में परिवर्तन का दौर चल रहा था पुरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मन रहा था और यह माना जा रहा था कि बस अब विकास सबके हिस्से में ही होगा और हम जैसे बदलाव कि महत्व्कान्षा रखने वालो को लगता था कि सारा पढ़ा हुआ अब हकीकतो में तब्दील हो जाएगा ।रादुगा प्रकाशन मास्को कि सस्ती किताबे पढ़कर हम बड़े हुए थे , महाश्वेता देवी, शंकर, सत्यजीत राय निर्मल वर्मा जैसे लोगो को पढ़कर हम ना मात्र परिपक्व हुए बल्कि एक मोटी मोटी समझ विकसित हुई . निर्मल वर्मा का संसार हमें एक फंतासी में ले जाता था और पश्चिम की समझ भी विकसित हुई । निर्मल ने हमें पुरी सभ्यता को एक नए ढंग से देखने का नजरिया दिया . हंस , वागर्थ , पश्यन्ति, आजकल , जनमत , गंगा , साक्षात्कार, बहुवचन, और ढेरो पत्रिकाओ ने हमें छपने के मौके दिए। देश में वामपंथी सक्रिय थे ऐसा हमें लगता था और लगता था कि सर्वहारा के दिन अब आने वाले ही है और बस फ़िर क्या था खूब पढ़ना लिखना और खूब बहस करना ............ इस सबमे प्रमोद शामिल होता था अपनी आदतों और दारू के बावजूद भी वो हमेशा होश में रहता था और हम्सबसे खूब बहस करता था। वो बहुत ही अच्छे नवगीत लिखता था ये बहुत बाद में समझ आया । प्रमोद को दिखावे से बहुत चीढ़ थी और इन समाजवादियों को कोसता रहता था । नईमजी को भी गाली देता था ,मुझे यादहै कुमार गन्धर्व समारोह में वो पीछे बैठता था और फ़िर धीरे धीरे हमें कहता था कि नईमजी के गीतों में वो दम नही है , बुंदेलखंड का नाम लेकर ये भावनाओ को कैश कराते है , और अपने संबंधो को भी कैश कराते है, सारे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियो से सम्बन्ध बनाकर रखे है इन्होने .......... प्रमोद नईमजी के गीतों में मीटर और शब्दों की भी गलतिया निकालता था ,और हम उसके भाषा ज्ञान पर चमत्कृत थे और बाद में समझ आया कि उसका भाषा ज्ञान कितन वृहद् था ।प्रमोद ने हमारे भी कई जाले साफ किए थे इसीलिए वो सारी आदतों के बावजूद भी प्रिया व्यक्ति था । बहदुर से उसकी दोस्ती बहुत घनिष्ठ थी । उसके दो बेटे थे , विप्लव और पप्पी -बाद में जब मुखर्जी नगर में प्रमोद ने घर बना लिया तो एक बार गुस्से में एक बेटे ने एक आदमी का खून कर दिया था , उस कारन वो बड़ा परेशां रहा कई दिनों तक, शरीर साथ नही देता था , शिक्षा विभाग का भला हो कि उसे उज्जैन रोड के ही एक स्कूल में ही स्थानांतरित कर दिया था और वह दीक्षा प्रदीप दुबे जैसी भली शिक्षिका थी जिसने सब सम्हाल लिया था , प्रमोद स्कूल कभी जाता ही नही था बस घर पर ही रहता था । हा पीना जारी था बदस्तूर .......... एक ऑटो आखिरी दिनों में ,ऑटो वाला उसे शराब के अड्डे पर ले जाता था और प्रमोद पीकर लौट आता था घर पर एख भाभी ने भी समझौता कर लिया था हालाँकि रखा के साथ लड़ते लड़ते उसकी उम्र निकल गई थी, रेखा भी भौरांसा में पद्धति थी , पर क्या करती आखिर पति परमेश्वर होता है...प्रमोद कि एक आदत से सब परेशान थे उधार लेने की आदत से ........ वो अक्सर रात में आ जाता था और ले जाता था........ पर एक बात है उसने कभी उधारी बाकि नही रखी किसी की अब का नही पता क्योकि पिछले ५ बरसो से में भोपाल में हू तो जानकारी नही है पर मेरी जानकारी में उसने किसी की उधारी नही रखी..........अपनी बीमारी ने उसे मार डाला था , जीते जी आँखे लगभग अंधी हो गई थी फ़िर भी वो किसी को छोड़ता नही था , कहता था साले सम्पादक भी मादरचोद है सबके सब...... कुछ समझ नही है ,न भाषा की ,न कविता की और यहाँ चोर बैठे है सब ........... । प्रमोद जोर से हँसता था और कहता था की बस यार दिखता नही है बहादुर पटेल अपना पटवारी है और मेरा यार है वही कविताये रखेगा, दिनेश पटेल ने कुछ टाइप कर के रखी थी अब पता नही वो कहा होंगी । अक्सर अस्पताल और घर के बिच वो झूल रहा था बहादुर ही उसे इंदौर ले जाता और ले आता था पर हा अब वो लगभग शांत हो चला था । पिछले बरस मेरी माँ की जब मृत्यु हुई तो वो घर आया था और मुझे सम्जहते हुए बोला "यार संदीप , सबको मरना है प्यारे दुःख कहे को करता है में मरूँगा तो आयेगा कि नही... और धीरे धीरे बोलता रह था अपने बारे में और परिवार के बारे में । उसका बागली का प्रेम खत्म नही हुआ था बागली उसका अपना घर था और लगभग नौस्तल्जिया की तरह बागली उसके अन्दर जिन्दा था पूरी शिद्दत के साथ...........हंस में रविन्द्र कालिया ने एक कालम शुरू किया था "ग़ालिब छूटी शराब......" उसमे भी प्रमोद ने अपना खूब चिटठा लिखा था ......... देवास में तब लिखने वालो के दो ही समूह थे जो हंस में छपे है और जो हंस में नही छपे है ..........!!!! हम सब लोग धीरे धीरे हंस में छाप ही गए पर ये रविन्द्र कालिया बनाम प्रमोद की बहस को खूब पढ़ते थे और चर्चा भी करते थे।प्रमोद ने दरअसल में हिन्दी नवगीत को एक नै भाषा दी थी और एक नए तेवर के साथ वो लिखता था......प्रमोद और नईमजी को बॉम्बे अस्पताल ने लील लिया । नईमजी के मृत्यु के बाद वो भी टूटा था अन्दर से और लोगो की तरह पर कह नही सकता था क्योकि जिंदगी भर तो उन्हें गालिया देता रहा । मुझे नही पता की नईमजी की मृत्यु के बाद मातम पुरसी को गया था की नही पर नईमजी के घर के लोग जरुर जायेंगे उसके घर ये मेरा विश्वास है ।देवास में दो गीतकार रहे और इंदौर के एक ही अस्पताल ने दोनों को लील लिया यह कोई आतंक से कम है ,पर होनी को कोई टाल नही सकता यही सच है .......... बहादुर ने आखिरी तक साथ निभाया है तो निश्चित ही उसके पास स्मृतिया ज्यादा होंगी पर में सिर्फ़ यही कह सकता हु की प्रमोद तुम्हारे नए गीतों की अभी हमें जरुरत थी.पिछली बार वीर धवल पाटेकर ने अपने एवरेस्ट स्कूल में एक दिन का कार्यक्रम किया था तो हम सब साथ थे पुरा दिन कमोबेश और वो अन्ना ( प्रकाश कान्त )से मुह छिपाता रहा था । मुझसे बोला संदीप मुझे भोपाल आना है तेरे पास रुकूँगा और उस साले राजेंद्र बंधू से भी मिलूँगा जो उसका पुराना साथी था , मैंने कहा था में जब भी सात आठ दिन लगातार भोपाल में रहूँगा तभी बुलाऊंगा ताकि सबसे मिल सको और हम खूब गीत सुन सके और खूब बातें भी कर सके पर कहा हो पता है सोचा हुआ सब ........प्रमोद का जन देवास के साहित्य में एक शुन्य का हो जन है सिर्फ़ तीन माह में दो बड़े गीतकारों का यू चुपचाप एक ही अस्पताल में गुजर जाना बेहद खलता है , दोस्तों पर क्या कोई और इलाज है हमारे पास , सिवाय नमन कहने के ........नईमजी और प्रमोद आप दोनों बहुत याद आओगे .......... श्रद्धा सुमन ..............<br /><br /><br /><br />Posted by Sandip Naik, Main Zindagi ka sath nibhata chala gaya</p>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-53407318352219134192009-08-05T11:59:00.000-07:002009-08-05T12:14:18.261-07:00रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविता<span style="font-size:180%;"><span class=""></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span class=""></span></span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;">मेरे आसमान में</span> </span><br /><span style="font-size:180%;"></span><br /><span style="font-size:180%;"></span><br /><span style="font-size:180%;"></span><br /><br />कौन देखता है जागकर दुनिया<br />देखकर कौन रोता है<br /><br />मेरे आसमां में कौन रहता है<br />मेरे आसमाँ में कौन रोता है<br /><span class=""></span><br />धरती की चादर गीली होती है<br />ये किसके आँसू बरसते हैं<br /><span class=""></span><br />कौन आँसुओं में भीगता है<br />किसकी आँखों में झिलमिलाती है रात<br /><br />रात को कौन देखता है दुनिया<br />देखकर कौन रोता है।Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-45624642442897668122009-04-12T04:21:00.000-07:002009-04-12T05:00:15.265-07:00कवि की कलाकारी<a href="http://1.bp.blogspot.com/_U24JWr_H0sc/SeHUWzduhdI/AAAAAAAAADU/XRT7_TvPk5Q/s1600-h/devtaleji.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5323769722765739474" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 166px; CURSOR: hand; HEIGHT: 121px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://1.bp.blogspot.com/_U24JWr_H0sc/SeHUWzduhdI/AAAAAAAAADU/XRT7_TvPk5Q/s400/devtaleji.jpg" border="0" /></a><br /><div><a href="http://4.bp.blogspot.com/_U24JWr_H0sc/SeHPlR7f3UI/AAAAAAAAADM/QTP7Dxamu4s/s1600-h/dev.jpg"><span style="font-size:180%;color:#ff0000;"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5323764473903701314" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 117px; CURSOR: hand; HEIGHT: 166px" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_U24JWr_H0sc/SeHPlR7f3UI/AAAAAAAAADM/QTP7Dxamu4s/s400/dev.jpg" border="0" /></span></a><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"> वरिष्ठ कवि</span></span></div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span></span></span> </div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span></span></span> </div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span> श्री चंद्रकांत देवताले</span></span></div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span></span></span> </div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span></span></span> </div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span> की दो </span></span></div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""></span></span></span> </div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"> </span></span></div><div><span style="font-size:180%;"><span style="color:#ff0000;"><span class=""> पेंटिंग</span> यहाँ</span></span><br /><br /><br /></div><div></div>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-69273946893916714322009-04-09T12:16:00.000-07:002009-04-09T13:06:59.219-07:00नवगीतकार नईम का जाना दुखी कर गया .<span style="color:#990000;">नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर , गज़लकार एवं काष्ठशिल्पी नईम लंबे समय से बीमार थे । वे इंदौर के एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान आज दिनांक ९.०४.२००९ को इस दुनिया में नहीं रहे । वे देवास में रहे । देवास को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया । हिन्दी साहित्य में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । वे आज हमारे बीच नहीं है। लेकिन उनका लेखन हमेशा हमारे बीच उन्हें मौजूद रखेगा । उन्हें हम सभी साहित्यिक साथियों की और से विनम्र अश्रुपूरित श्रद्धांजलि पेश है । उन्हें दिनांक १०.०४.२००९ शुक्रवार को सुबह ११ बजे अन्तिम बिदाई दी जायेगी । </span><br /><span style="color:#990000;">श्रद्धांजलि देते हुए उनका एक गीत प्रस्तुत है। </span><br /><br /><span class=""> <span style="font-size:180%;color:#003300;"> नवगीत</span></span><span style="font-size:180%;"> </span><br /><br /><br /><span style="color:#000099;">खाली हाथ लिए आया था </span><br /><span style="color:#000099;"> खाली ही दिन चला गया । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">वो क्या आया, हम ही बस यूँ ही आये थे </span><br /><span style="color:#000099;">भीतर से आधे बाहर से किंतु सवाये थे </span><br /><span style="color:#000099;">फंसा निरर्थकता के पाटों में </span><br /><span style="color:#000099;"> अपने हाथों दला गया । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">राजी नहीं हुआ भरने को अपना ही मन, </span><br /><span style="color:#000099;">हुआ माटिया हाथ लगाये सोने सा धन </span><br /><span style="color:#000099;">अपना भाड़ न फोड़ सका </span><br /><span style="color:#000099;"> औरों के हाथों तला गया । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">चले गए यूँ ही दिन खाली चले गए खाली,</span><br /><span style="color:#000099;">उतर गई बालों की स्याही, चेहरे की लाली </span><br /><span style="color:#000099;">बिना बुलाये आया था जो </span><br /><span style="color:#000099;"> बिना रुके ही भला गया । </span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-78820930009480475412009-03-16T11:30:00.000-07:002009-03-27T11:25:37.176-07:00कुमार अम्बुज की कविता<p><span style="font-size:180%;color:#990000;"></span></p><p><span style="font-size:180%;color:#990000;">कोई है मांजता हुआ मुझे</span> </p><p></p><p><br /><span style="color:#000099;">कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे<br />चमकाता हुआ रोम-रोम<br />रगड़ता<br />ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई<br />इतिहास की राख से<br />मांजता है कोई </span></p><span style="color:#000099;"><p><br />मैं जैसे एक पुराना तांबे का पात्र<br />मांजता है जिसे कोई अम्लीय कठोर<br />और सुंदर भी बहुत<br />एक स्वप्न कभी कोई स्मृति<br />एक तेज़ सीधी निगाह<br />एक वक्रता<br />एक हंसी मांजती है मुझे </p><p><br />कर्कश आवाज़ें<br />ज़मीन पर उलट-पलटकर रखे-पटके जाने की<br />और मांजते चले जाने की<br />अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक<br />दौड़ती है नसों में बिजलियां बन<br />चमकती है </p><p><br />धोता है कोई फिर<br />अपने समय के जल की धार से<br />एक शब्द मांजता है मुझे<br />एक पंक्ति मांजती रहती है<br />अपने खुरदरे तार से. </span></p>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-17977204373122042212009-02-05T05:21:00.000-08:002009-02-22T11:47:37.236-08:00बोधिसत्व की कविता<span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#990000;">माँ का नाच</span></strong> </span><br /><br /><span style="color:#000099;">कई स्त्रियाँ थीं </span><br /><span style="color:#000099;">नाच रही थीं, गाते हुए ।</span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">वे खेत में नाच रही थीं या</span><br /><span style="color:#000099;">आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था</span><br /><span style="color:#000099;">एक मटमैले वितान के नीचे था</span><br /><span style="color:#000099;">चल रहा यह नाच ।</span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">कोई पीली साडी पहने थी</span><br /><span style="color:#000099;">कोई धानी </span><br /><span style="color:#000099;">कोई गुलाबी </span><br /><span style="color:#000099;">कोई जैसे जोगन ,</span><br /><span style="color:#000099;">सब नाचते हुए मदद कर रही थीं </span><br /><span style="color:#000099;">एक दूसरे की </span><br /><span style="color:#000099;">थोडी देर नाच कर दूसरी के लिए </span><br /><span style="color:#000099;">हट जाती थीं वे नाचने की जगह से । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">कुछ देर बाद बारी आयी माँ के नाचने की </span><br /><span style="color:#000099;">उसने बहुत सधे ढंग से </span><br /><span style="color:#000099;">शुरू किया नाचना </span><br /><span style="color:#000099;">गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से </span><br /><span style="color:#000099;">पुराना गीत । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी </span><br /><span style="color:#000099;">जो नाच चुकी थीं वे भी , अचंभित </span><br /><span style="color:#000099;">मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">मटमैले वितान के नीचे </span><br /><span style="color:#000099;">इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ </span><br /><span style="color:#000099;">पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी </span><br /><span style="color:#000099;">टूट चुके थे घुटने कई बार </span><br /><span style="color:#000099;">झुक चली थी कमर </span><br /><span style="color:#000099;">पर जैसे भंवर घूमता है </span><br /><span style="color:#000099;">जैसे बवंडर नाचता है </span><br /><span style="color:#000099;">नाच रही थी माँ </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">आज बहुत दिनों बाद उसे </span><br /><span style="color:#000099;">मिला था नाचने का मौका </span><br /><span style="color:#000099;">और वह नाच रही थी बिना रुके </span><br /><span style="color:#000099;">गा रही थी बहुत पुराना गीत </span><br /><span style="color:#000099;">गहरे सुरों में </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद </span><br /><span style="color:#000099;">पर नाचना जारी रहा </span><br /><span style="color:#000099;">वह इतनी गति में थी कि परबस </span><br /><span style="color:#000099;">घुमती जा रही थी </span><br /><span style="color:#000099;">फिर गाने कि जगह उठा </span><br /><span style="color:#000099;">विलाप का स्वर </span><br /><span style="color:#000099;">और फैलता चला गया उसका वितान</span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">वह नाचती रही बिलखते हुए </span><br /><span style="color:#000099;">धरती के इस छोर से उस छोर तक </span><br /><span style="color:#000099;">समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक </span><br /><span style="color:#000099;">सब भरे थे उसकी नाच की धमक से </span><br /><span style="color:#000099;">सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान । </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#006600;">(बोधिसत्व , हरिओम राजोरिया , विवेक गुप्ता की इन कविताओं पर कुमार अम्बुज जी की टिप्पणियां बाद में पोस्ट करूँगा अभी आप कवितायें पढ़ें और अपनी टिप्पणियां दें । )</span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-2774663370918894872009-02-04T08:03:00.000-08:002009-02-04T09:30:32.665-08:00विवेक गुप्ता की कविता<span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#990000;">वह एक घर था एसा</span></strong></span><br /><br /><strong><span style="color:#000099;">वह एक घर था एसा </span><br /><span style="color:#000099;">जिसकी छत थी निरंतर झरती हुई </span><br /><span style="color:#000099;">दीवारें कंपकंपाती थीं धमक से </span><br /><span style="color:#000099;">जिनमे हिलती हुई चौखटें जडी थीं </span><br /><span style="color:#000099;">और दरवाजे नहीं थे </span><br /><span style="color:#000099;">रहने के लिए घर में </span><br /><span style="color:#000099;">घर के लोगों ने उन पर टाट के झीने परदे लटका दिए थे </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#003300;">वह एक घर था एसा </span><br /><span style="color:#003300;">कि बकरियां आतीं तो चबाने लगतीं टाट </span><br /><span style="color:#003300;">बिल्लियों के लिए टाट कोई बाधा नहीं थी </span><br /><span style="color:#003300;">रस्ते चलते मवेशी यूँ ही झांक जाते थे </span><br /><span style="color:#003300;">जैसे पूछते हुए 'क्या हो रहा है '</span><br /><span style="color:#003300;">मुर्गियां अपने बच्चों की पूरी पलटन के साथ </span><br /><span style="color:#003300;">टहलने चली आतीं घर में </span><br /><span style="color:#003300;">चूजे कुंकियाते , फुदकते हुए बर्तनों और बिस्तरों में घुस जाते </span><br /><span style="color:#003300;">घर के लोग काम छोड़कर पहले निकालते उन्हें </span><br /><span style="color:#003300;">कि कहीं पैर न पड़ जाए उन पर </span><br /><span style="color:#003300;">शाम को खाना पकने कि गंध पाकर सूंघते हुए आते कुत्ते </span><br /><span style="color:#003300;">झांकते इस तरह कि अभी देर हो थोडी </span><br /><span style="color:#003300;">तो आऊं गली का एक चक्कर लगाकर </span><br /><br /><span style="color:#cc0000;">हवा के लिए कोई रोकटोक नहीं थी घर में </span><br /><span style="color:#cc0000;">परदों को झंडों की तरह लहराती हुई </span><br /><span style="color:#cc0000;">धुल के साथ-साथ वह आती-जाती रहती थी </span><br /><span style="color:#cc0000;">बारिश होती </span><br /><span style="color:#cc0000;">तो बूँदें घुस आतीं भीतर तक </span><br /><span style="color:#cc0000;">फर्श पर टपाटप पड़ती हुई </span><br /><span style="color:#cc0000;">पूरे घर और उसमें रहनेवालों को भिगोती </span><br /><span style="color:#cc0000;">भीतर एक धुआं सा भरा रहता घर में </span><br /><span style="color:#cc0000;">सुबह उठो तो कुछ दिखाई नहीं देता था </span><br /><span style="color:#cc0000;">देखते रहने पर धीरे-धीरे खुलता था घर </span><br /><br /><span style="color:#000066;">घर के लोग बने रहते थे घर में </span><br /><span style="color:#000066;">भीगते छींकते खांसते तपते </span><br /><span style="color:#000066;">ठिठुरकर </span><br /><span style="color:#000066;">एक दूसरे को टटोलते हुए </span><br /><span style="color:#000066;">अक्सर वे चुपचाप दुबके रहते बिस्तरों में </span><br /><span style="color:#000066;">बाहर की इतनी आवाजें इतनी आवाजाही थी घर में </span><br /><span style="color:#000066;">कि घर के लोग आपस में बहुत काम बोल पाते थे </span><br /><span style="color:#000066;">बोलते तो बहुत धीमे फुसफुसाकर </span><br /><span style="color:#000066;">आवाज करने में एक डर-सा लगता था </span><br /><span style="color:#000066;">वे पैर दबाकर चलते </span><br /><span style="color:#000066;">जैसे नींद में चल रहे हों तैरते हुए </span><br /><span style="color:#000066;">सामान धीरे-धीरे उठाते रखते बेआवाज </span><br /><br /><span style="color:#990000;">बार-बार सामान उठाते पटकते </span><br /><span style="color:#990000;">उसे बारिश से बचाते-बचाते </span><br /><span style="color:#990000;">आ जाती थीं ठण्ड </span><br /><span style="color:#990000;">बर्तनों में जम जाता था पाला </span><br /><span style="color:#990000;">उसे साफ करते-करते आ जाता पतझड़ </span><br /><span style="color:#990000;">धूल और पत्तों से भर जाता था घर </span><br /><span style="color:#990000;">बुहारते-बुहारते चलने लगती थी लू </span><br /><span style="color:#990000;">जब दोपहर से सन्नाटे में घर भांय-भांय बजाने लगता </span><br /><span style="color:#990000;">लू के थपेडों के बीच </span><br /><span class=""><span class=""></span><span style="color:#990000;">वे पुराने काम निकालकर बैठ जाते </span></span><br /><span style="color:#990000;">संदूक खोलकर कपडे झाड़ते दोबारा तहें जमाते हुए </span><br /><span style="color:#990000;">खटते-खटते काट देते गर्मियां </span><br /><span style="color:#990000;"><span class="">इस तरह करते फिर बारिश </span>आने का इंतजार । </span></strong>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-35939396000323555292009-01-26T05:19:00.000-08:002009-01-26T12:09:44.300-08:00मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल के वागीश्वरी सम्मान के अवसर पर कुछ बातें<span style="color:#cc0000;">दिनांक २४ एवं २५.०१.२००९ को भोपाल में एक आयोजन हुआ । आयोजन था मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल के वागीश्वरी सम्मान का । २००८ का यह सम्मान कहानी विधा के लिए श्री सत्यनारायण पटेल (इंदौर) को उनके कहानी संकलन "भेम का भेरू मांगता कुल्हाडी इमान" तथा श्री भालचंद्र जोशी (खरगोन) को उनके कहानी संग्रह "चरसा" पर दिया गया। कविता के लिए श्री दिनेश कुशवाह (रीवा) को उनके कविता संग्रह "इसी काया में मोक्ष " पर दिया गया । आलोचना के लिए अमरकांत के कथा साहित्य पर काम करने के लिए डॉ.बहादुर सिंह परमार (छतरपुर) को दिया गया । </span><br /><span style="color:#cc0000;"></span><br /><span style="color:#cc0000;">दो दिवसीय इस कार्यक्रम में डॉ.नामवर सिंह सहित कई ख्यात साहित्यकारों ने इस आयोजन की शोभा बढ़ाई। जिसमे सर्वश्री चंद्रकांत पाटिल (मराठी कवि), चंद्रकांत देवताले ,विजय कुमार, भगवत रावत, आग्नेय, डॉ.कमलाप्रसाद (महामंत्री ,साहित्य सम्मेलन), अक्षय कुमार जैन (अध्यक्ष, साहित्य सम्मेलन), राजेश जोशी , कुमार अम्बुज , लीलाधर मंडलोई , राजेंद्र शर्मा , निलेश रघुवंशी, डॉ.उर्मिला शिरीष, हरि भटनागर , मुकेश वर्मा , भालचंद्र जोशी ,सत्यनारायण पटेल, दिनेश कुशवाह, बहादुर सिंह परमार, जीतेन्द्र चौहान, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, आदि कई साहित्यकार उपस्थित थे । </span><br /><span style="color:#cc0000;">दिनांक २४.०१.०९ को पहला सत्र कविता पर केंद्रित था । दूसरे सत्र में पुरस्कार प्रदान किए गए तथा कई पुस्तकों का विमोचन किया गया । इस अवसर पर हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है । </span><br /><span style="color:#cc0000;">दिनांक २५.०१.२००९ को पहले सत्र में कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने अपनी पसंद की तीन कविताओं पर बात की ।</span><br /><span style="color:#cc0000;">श्री कुमार अम्बुज ने हरिओम राजोरिया की कविता "चंदूलाल कटनीवाले" श्री विवेक गुप्ता की कविता "वह एक घर था एसा " श्री बोधिसत्व की कविता "माँ का नाच" को उल्लेखनीय बताया। </span><br /><span style="color:#cc0000;">इन कविताओं को मैं एक - एक कर यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.</span><br /><span style="color:#cc0000;">दूसरे सत्र में कविता पाठ हुआ जिसमे कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया । </span><br /><span style="color:#cc0000;"></span><br /><br /><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;"></span></span></p><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;"></span></span></p><p><span style="color:#cc0000;"><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#003300;">चंदूलाल कटनीवाले</span></strong> </span></span></p><p><span style="font-size:180%;color:#cc0000;"></span> </p><p><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;">(हरिओम राजोरिया)</span></span></p><p> </p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">इस क़स्बे में उनका आखिरी पड़ाव था</span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">वे सरकारी खर्च पर कबीर को गाने आए थे </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">सरकार की तरफ़ से थी व्यवस्था उनकी </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">एस.डी.एम.ने तहसीलदार से कहा </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">तहसीलदार ने गिरदावर से </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">गिरदावर ने पटवारियों से </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">पटवारियों ने दिलवा दिया था उन्हें माइक </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">स्कूल के हॉल में कुर्सियां पहले से पड़ी थीं </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">ताँगे में ऐलान हुआ था सरकारी ढंग का </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">जिसमे चंदूलाल कटनीवाले से ज्यादा </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">सरकार के संस्कृति विभाग का जिक्र हुआ </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">इतना सब होने के बाद चंदूलाल को सुनने</span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">आए पचासेक लोग </span></strong></span></p><p><strong><span style="font-size:130%;color:#000099;"></span></strong> </p><p></p><p><strong><span style="font-size:130%;color:#000099;"></span></strong></p><p><span style="font-size:130%;color:#000099;"><strong></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">आर्गन पर एक लड़का बैठा था </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">जिसका चेहरा बहुत सुंदर था </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">अपनी पोलियोग्रस्त टांगों को उसने </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">सफाई से छुपा लिया था आर्गन के उस तरफ़ </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">और बैसाखियाँ सरका दी थीं परेड के पीछे </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">तबलावादक एसा जान पड़ता था </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">जैसे किसी ध्वस्त मकान के मलबे में से </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">अभी निकलकर आया हो बाहर</span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">उसे मुस्कराने का कोई अभ्यास नहीं था </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">पर वह मुस्कराए जा रहा था लगातार </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">चंदूलाल तनकर बैठे थे हारमोनियम लिए </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;">आठ घड़ी किया शाल पड़ा था उनके कन्धों पर</span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#006600;"><span class=""></span> </span></strong></span></p><p><strong><span style="font-size:130%;color:#000099;"></span></strong></p><p></p><p><span style="font-size:130%;color:#000099;"><strong></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">गाने को तत्पर थे चंदूलाल </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">पर जुट नहीं रहे थे उतने लोग </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">उनके झक सफ़ेद कपडों में </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">चुपके से आकर दुबक गई थी उदासी </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">बेमन से गाने को हुए ही थे चंदूलाल </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">इतने में अचानक आ गए अपर साहब </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">अपर साहब को आता देख </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">खड़े हो गए श्रोता </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">खड़ा हो गया सरकारी तंत्र </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">चंदूलाल के गले में अटक गए कबीर भी </span></strong></span></p><p><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;">खड़े हो गए चंदूलाल के साथ । </span></strong></span></p><p><strong><span style="font-size:130%;color:#000099;"></span></strong> </p><p><strong><span style="font-size:85%;color:#cc33cc;">(विवेक गुप्ता की कविता अगली बार )</span></strong></p><p><span style="font-size:130%;"><span class=""></span></span></p><p><span style="font-size:130%;"><span class=""></span></span><span style="font-size:130%;"><strong><span style="color:#000099;"></span></strong></p></span><p><strong><br /><span style="color:#000099;"></span></strong></p>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-57644283001632045752009-01-05T10:34:00.000-08:002009-01-05T11:25:07.219-08:00शरद बिल्लौरे की कविता<span style="color:#cc0000;">जब तक शरद बिल्लौरे जीवित रहे उनका लिखा हुआ बहुत कम प्रकाशित हो पाया था । केवल २५ वर्ष की अल्पायु में उनका दु:खद निधन हो गया था। इस कविता के लिए उन्हें उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद १९८३ के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया था .१९८३ के निर्णायक थे नामवर सिंह ।<br /></span><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span style="color:#003300;"><span style="font-size:180%;">तय तो यही हुआ था<br /></span><br /></span><br /><span style="color:#000099;">सबसे पहले बायाँ हाथ कटा<br />फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए<br />टुकडों में कटते चले गए<br />खून दर्द के धक्के खा खा कर<br />नसों से बहार निकल आया था<br /><br />तय तो यही हुआ था कि मैं<br />कबूतर कि तौल के बराबर<br />अपने शरीर का मांस काटकर<br /><span class=""></span>बाज को सौंप दूँ<br />और वह कबूतर को छोड़ दे<br /><br />सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था<br />शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था<br />और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था<br />हर कर मैं</span><br /><p><span style="color:#000099;">samucha hi taraju par chadh gaya </span></p><p><span style="color:#000099;"></span> </p><p><span style="color:#000099;">aasaman se phool nahin barase </span></p><p><span style="color:#000099;">kabootar ne koi doosara roop nahin liya </span></p><p><span style="color:#000099;">aur maine dekha </span></p><p><span style="color:#000099;">baaj ki dadh me</span></p><p><span style="color:#000099;">aadami ka khoon lag chuka hai .</span></p><p><span style="color:#000099;"></span> </p>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-34213537198474459532008-12-27T10:19:00.000-08:002008-12-27T20:03:50.868-08:00जितेन्द्र चौहान की कविता<span style="color:#ff0000;">जितेन्द्र चौहान मेरे मित्र हैं। वे बेहद संवेदनशील कवि हैं। उनकी प्रतिबद्धता की मैं क़द्र करता हूँ । वे नईदुनिया इंदौर में कार्यरत हैं। उनका कविता संग्रह टांड से आवाज हाल ही में आया है । उनकी कई <span class="">कविताएँ </span>मुझे पसंद है। फिलहाल उनकी एक कविता आपके लिए यहाँ प्रस्तुत है। </span><br /><br /><span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#006600;">सबसे सुन्दर स्त्री</span></strong></span><br /><br /><span class=""></span><strong><span style="color:#000099;">मारिया शारापोवा</span></strong><br /><span style="color:#000099;"><strong>मैंने मोनालिसा को नहीं देखा </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>नहीं देखा मधुबाला को </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>हाँ मैंने देखा है तुम्हे </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>टेनिस कोर्ट में </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>हिरणी सी चपलता दिखाते हुए </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>डॉज-शोट को खेलते हुए </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तुम्हारे ताम्बई चेहरे पर </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तैरती है मुस्कराहट </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तब तुम मुझे पृथ्वी की </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>सबसे सुन्दर स्त्री लगती हो </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong></strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>मारिया शारापोवा </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>अपने पीठ दर्द के साथ </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>जब तुम हार्डकोर्ट में </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>उतरती हो फतह के लिए </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>पीठ दर्द से रातभर </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>करवटें बदलता हूँ मैं </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तुम्हारे पोस्टर के सामने </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong></strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>मारिया शारापोवा </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तुम फाइनल में हराने के बाद</strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>जिस निश्छल मुस्कराहट के साथ </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>अपनी प्रतिद्वन्द्वी से </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>हाथ मिलाती हो </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>खिलखिलाते हुए </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>पोज देती हो </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>तब तुम मुझे पृथ्वी की </strong></span><br /><span style="color:#000099;"><strong>सबसे सुन्दर स्त्री लगती हो । </strong></span><br /><span class=""></span><span style="color:#000099;"><strong></strong></span><br /><br /><span style="color:#000099;"><strong></strong></span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-2146714693970830732008-12-03T05:51:00.000-08:002008-12-03T06:12:31.387-08:00नवीन सागर की कविता<span style="font-size:180%;"><strong><span style="color:#000099;">मैं संतूर नहीं बजाता</span></strong></span><br /><span class=""></span><br /><strong><span style="color:#cc0000;">संतूर नहीं बजाता </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">नहीं बजाता तो नहीं बजाता </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">पर क्या बात कि नहीं बजाता </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">है तो कितना बेतुका आघात </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कि मैं संतूर नहीं बजाता </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कैसे इतना जीवन गुजर गया </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">मुझे खयाल तक नहीं आया </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कि मैं संतूर नहीं बजाता !</span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">और होते-होते हालत आज ये हुई </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कि मैं इतनी बड़ी दुनिया में </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">संतूर नहीं बजाता !</span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कोई संगीतज्ञ नहीं हूँ मगर </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">जानना है मुझे आख़िर </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">क्या था वह जो </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">मेरे और संतूर के बिच अडा रहा </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">यह नहीं कि मैं बजाना चाहता हूँ </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">जानना चाहता भर हूँ आख़िर वह </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">क्या था </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">मेरे और संतूर के बीच </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">कि मैं दूर-दूर तक </span></strong><br /><strong><span style="color:#cc0000;">संतूर नहीं बजाता। </span></strong><br /><span class=""><span class=""></span><strong><span style="color:#cc0000;"> </span></strong></span><br /><strong><span style="color:#cc0000;"></span></strong>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-44048497226370821682008-11-23T04:23:00.000-08:002008-11-23T09:49:27.389-08:00हांस माग्नुस येंत्सेंसबर्गर की कविता<strong><span style="color:#cc0000;">जन्म : ११ नव१९२९ जर्मनी। १९६५-१९६६ के दौरान भारत यात्रा पर आये थे। अनुवाद: सुरेश सलिल </span></strong><br /><br /><span style="font-size:180%;color:#006600;"><strong>रांडो</strong></span><br /><span class=""></span><br /><span style="color:#000099;">बात करना आसान है </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">लेकिन शब्द खाए नहीं जा सकते </span><br /><span style="color:#000099;">सो रोटी पकाओ </span><br /><span style="color:#000099;">रोटी पकाना मुश्किल है </span><br /><span style="color:#000099;">सो नानबाई बन जाओ </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">लेकिन रोटी में रहा नहीं जा सकता </span><br /><span style="color:#000099;">सो घर बनाओ </span><br /><span style="color:#000099;">घर बनाना मुश्किल है </span><br /><span style="color:#000099;">सो राज-मिस्त्री बन जाओ </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">लेकिन घर पहाड़ पर नहीं बनाया जा सकता </span><br /><span style="color:#000099;">सो पहाड़ खिसकाओ</span><br /><span style="color:#000099;">पहाड़ खिसकाना मुश्किल है </span><br /><span style="color:#000099;">सो पैगम्बर बन जाओ </span><br /><span style="color:#000099;"></span><br /><span style="color:#000099;">लेकिन विचार को तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते </span><br /><span style="color:#000099;">सो बात करो </span><br /><span style="color:#000099;">बात करना मुश्किल है </span><br /><span style="color:#000099;">सो वह हो जाओ जो हो </span><br /><span style="color:#000099;">और अपने आप में कुड्बुदाते रहो । </span>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-6440988627931873089.post-6741495853774319712008-11-17T10:58:00.000-08:002008-11-17T11:32:08.785-08:00नवीन सागर की कविता<span style="color:#cc0000;"><span class="">नवीन </span>सागर का जन्म २९.११.१९४८ को सागर म प्र में हुआ था। १४.०४.२००० को उनका आकस्मिक निधन हो गया। वे बहुत अच्छे कवि एवं कहानीकार थे। उनकी एक कविता यहाँ प्रस्तुत है। </span><br /><span style="font-size:180%;"><span style="color:#006600;">संदिग्ध </span></span><br /><span class=""></span><br /><strong><span style="color:#000099;">इस शहर में </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">जिनके मकान हैं वे अगर </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">उनको मकानों में न रहने दें </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">जिनके नहीं हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">बहुत कम लोग मकानों में रह जायेंगे। </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">जिनके मकान हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">वे </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">मजबूती से दरवाजे बंद करते हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">खिड़की से सतर्क झांकते हैं</span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">ताले <span class="">जड़ते हैं </span></span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">सुई की नोक बराबर भूमि के लिए लड़ते हैं। </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">जिनके मकान नहीं हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">वे </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">बहार से झांकते हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">दरवाजों पर ठिठकते हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">झिझकते हुए खिड़कियों से हटते हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">जिनके मकान नहीं हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;">वे हर मकान के बाहर संदिग्ध हैं </span></strong><br /><strong><span style="color:#000099;"><span class="">वे हर मकान को अपने मकान की याद में देखते हैं.</span> </span></strong>Bahadur Patelhttp://www.blogger.com/profile/13259752722633307367noreply@blogger.com7