माँ का नाच
कई स्त्रियाँ थीं
नाच रही थीं, गाते हुए ।
वे खेत में नाच रही थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच ।
कोई पीली साडी पहने थी
कोई धानी
कोई गुलाबी
कोई जैसे जोगन ,
सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
एक दूसरे की
थोडी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।
कुछ देर बाद बारी आयी माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत ।
माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
जो नाच चुकी थीं वे भी , अचंभित
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ
मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ
आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में
अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान
वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।
(बोधिसत्व , हरिओम राजोरिया , विवेक गुप्ता की इन कविताओं पर कुमार अम्बुज जी की टिप्पणियां बाद में पोस्ट करूँगा अभी आप कवितायें पढ़ें और अपनी टिप्पणियां दें । )
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