सोमवार, 16 मार्च 2009

कुमार अम्बुज की कविता

कोई है मांजता हुआ मुझे


कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
मांजता है कोई


मैं जैसे एक पुराना तांबे का पात्र
मांजता है जिसे कोई अम्‍लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्‍वप्‍न कभी कोई स्‍मृति
एक तेज़ सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हंसी मांजती है मुझे


कर्कश आवाज़ें
ज़मीन पर उलट-पलटकर रखे-पटके जाने की
और मांजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियां बन
चमकती है


धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्‍द मांजता है मुझे
एक पंक्ति मांजती रहती है
अपने खुरदरे तार से.

7 टिप्‍पणियां:

KK Yadav ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...बधाई !!
______________________________
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

Sushil Kumar ने कहा…

कुमार अम्बुज हमारे समय के बड़े कवियों में से हैं।इनकी कविता का एक अरसे से मैं पाठक भी रहा हूँ।प्रस्तुत कविता का भाव अति संश्लिष्ट और गहरा है।
धन्यवाद उनकी कविता पढ़वाने के लिये बहादुर पटेल जी को।

Sushil Kumar ने कहा…

मेरी नई कविता अधूरी शब्दयात्राएँ पढे़ www.sushilkumar.net पर।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियां बन
चमकती है
धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से

खूबसूरत रचना.....बहूत शशक्त अभ्व्यक्ति है

Arun Aditya ने कहा…

अम्बुज जी की कुछ कवितायें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। यह भी उन्ही में से एक है।

प्रदीप कांत ने कहा…

धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्‍द मांजता है मुझे
एक पंक्ति मांजती रहती है
अपने खुरदरे तार से.

Bahut badhiya

Ashok Kumar pandey ने कहा…

अम्बुज जी उन कविओं में से हैं जिनका अनुशीलन करते हुए हमारी पीढी ने लिखना सीखा है.
इस प्रस्तुति के लिए बधाई.