आदिवासी
वे जो सुविधा भोगी हैं
या मौका परस्त हैं
या जिन्हें आरक्षण चाहिए
कहते हैं हम आदिवासी हैं ,
वे जो वोट चाहते हैं
कहते हैं तुम आदिवासी हो ,
वे जो धर्म प्रचारक हैं
कहते हैं
तुम आदिवासी जंगली हो ।
वे जिनकी मानसिकता यह है
कि हम ही आदि निवासी हैं
कहते हैं तुम वनवासी हो ,
और वे जो नंगे पैर
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
कभी नहीं कहते कि
हम आदिवासी हैं
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
अपना इलाज करना
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
मौसम का मिजाज समझना
सारे पेड़-पौधे , पर्वत-पहाड़
नदी-झरने जानते हैं
कि वे कौन हैं ।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
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5 टिप्पणियां:
वे जो नंगे पैर
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
कभी नहीं कहते कि
हम आदिवासी हैं
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
अपना इलाज करना
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
मौसम का मिजाज समझना
सारे पेड़-पौधे , पर्वत-पहाड़
नदी-झरने जानते हैं
कि वे कौन हैं ।
क्या बात है !! क्या अंदाज़ है !बहुत खूब !
रक्षाबंधन की ह्र्दयंगत शुभ कामनाएं !
समय हो तो अवश्य पढ़ें:
यानी जब तक जिएंगे यहीं रहेंगे !http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_23.html
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
अपना इलाज करना
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
मौसम का मिजाज समझना
सारे पेड़-पौधे , पर्वत-पहाड़
नदी-झरने जानते हैं
कि वे कौन हैं ।
सटीक रचना .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!
बहुत सुंदर जी, आप की कविता से सहमत है, धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
बहुत उम्दा!
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत सुन्दर गहरी संवेदना को उकेरती रचना....
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर ...हार्दिक शुभकामनाएँ
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