सोमवार, 16 मार्च 2009

कुमार अम्बुज की कविता

कोई है मांजता हुआ मुझे


कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
मांजता है कोई


मैं जैसे एक पुराना तांबे का पात्र
मांजता है जिसे कोई अम्‍लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्‍वप्‍न कभी कोई स्‍मृति
एक तेज़ सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हंसी मांजती है मुझे


कर्कश आवाज़ें
ज़मीन पर उलट-पलटकर रखे-पटके जाने की
और मांजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियां बन
चमकती है


धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्‍द मांजता है मुझे
एक पंक्ति मांजती रहती है
अपने खुरदरे तार से.