सोमवार, 31 अगस्त 2009

प्रमोद उपाध्याय के नवगीत

एक
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।

आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि या
कि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।

इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।


शंख सीपियों का पड़ौस हैहंस उड़ें अढ़ाई कोस है
घिसी-पिटी लीकों पर चलना
आँख मींच मक्खियाँ निगलना।

अटक रहा है थूक गले में
कैसे और बिलोयें कब तक
मृतकों के मुख में गंगाजल
टोयें तो टोयें कब तक।

दो

चल पड़ी है
बैलगाड़ी
मण्डियों की ओर
इन गडारों से
नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी
ओंठ पर
मुस्कान लेकर
आज होरी
चल पड़ा है गुनगुनाता
मण्डियों की ओर
इन गडारों से।

लगी भुगतान बिलों परअंगुठे की निशानी
ज्यों कि कुल्हों पर चुभी
ख़ुद की पिरानी
इस बरस भी
तमतमाते, स्याह ये चेहरे
बैरंग लौटे हैंइन गडारों से।

रविवार, 9 अगस्त 2009

नवगीतकार प्रमोद उपाध्याय के निधन पर

0६.०८.०९ की रात ११.४५ के लगभग भाई प्रमोद उपाध्याय के निधन पर संदीप नाईक ने बहुत डूबकर लिखा उनके ब्लॉग से आपके लिए यहाँ भी पोस्ट कर कर रहा हूँ ।

प्रमोद उपाध्याय का गुजर जाना

यानि कि हिन्दी के नवगीत में

एक और शून्य का उपजना

आजकल बहादुर के फ़ोन आते ही डर लगने लगता है कि पता नही किसके मौत का पैगाम दे रहा हो । ऐसा ही कुछ आज हुआ दोपहर में बैठा कुछ काम कर रहा था कि उसका फ़ोन आया दिल धक्क से रह गया कि हो न हो मेरे अपने शहर में कुछ गंभीर हो गया है । जैसे ही फ़ोन उठाया वह बोला भाईसाहब एक बुरी ख़बर है मैंने कहा कि साला अब क्या हो गया , तो बोला कि प्रमोद का कल रात बारह बजे इंदौर में देहांत हो गया में चौक गया कि ये सब क्या हो गया, कहा तो वो भोपाल आने वाला था मुझसे हमेशा कहता था कि संदीप तेरे पास आकर रहूँगा और में हंसकर टाल देता था। देवास हमारा अपना कस्बा था जहा मै पढ़ा लिखा और सारे संस्कार लिए। लिखना पढ़ना मेरे अन्दर डालने वालो मे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, विष्णु चिंचालकर "गुरूजी", बाबा डिके, कालांतर मे जीवन सिंह ठाकुर डॉक्टर प्रकाश कान्त , प्रभु जोशी और मेरे अज़ीज़ दोस्त बहादुर पटेल और मनीष वैद्य का नाम लिए बगैर सब व्यर्थ हो जाएगा। बाद मे पता चला कि नईम और भी दीगर लेखक थे जो राष्ट्रीय स्तर पर नाम और काम के कारण जाने जाते थे। प्रमोद उपाध्याय उसी गाँव के थे, जहा मेरी माँ ने सन सत्तर के दशक मे बालिका शिक्षा के लिए अलख जगाया था भौरांसा । प्रमोद एक अच्छे नवगीतकार थे यह बाद मे पता चला, पर जब मे एकलव्य मे काम करता था तो अक्सर उनके घर पर मुलाक़ात हो जाती थी जब वो नाहर दरवाजे पर कोठारी के मकान मे रहते थे । पत्नी रेखा भी एक शिक्षिका ही थी और भौरांसा मे पढाती थी दो बच्चे थे विप्लव और पप्पी दूसरे का नाम मुझे याद नही आ रहा , प्रमोद से खूब गप्पे होती थी रवि का ख़ास दोस्त था तम्बाखू की दोस्ती कब करीबी दोस्ती मे बदल गई हमें पता ही नही चला ।धीरे धीरे प्रमोद को शराब की आदत लग गई और वह बेतहाशा पीने लगा। उसकी तबियत ख़राब रहने लगी स्कूल का जाना आना कम होता गया । हा उसके नवगीत खूब छपने लगे थे । देवास में तब लिखने पढ़ने का बहुत माहौल हुआ करता था । देश में एक जबरदस्त परिवर्तन की आंधी चल रही थी हम लोग खूब पढ़ते थे , सच कहू तो लिखने पढने का संस्कार डालने वालो में जूनून था कि एक नै पौध तैयार करना है और परिवर्त लाना है देश का समाज का विकास करना है सारी सडी गली मान्यताओ को बदलना है , एक अजीब किस्म का खुमार था हम युवाओ पर और ऐसा भी नही कि यह कोई इतिहास में पहली बार हो रहा हो । मुझे लगता है कि में बहुत भाग्यशाली हु कि मुझे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, बाबा डीके और विष्णु चिंचालकर" गुरूजी" जैसे लोगो का साथ मिला , मै कह सकता हू कि मैंने इन्हे देखा ,छुआ और इनसे सिखा है । कालांतर मै देवास मे नईमजी के साथ नवगीत क्या होता है यह जाना तब समझ आया कि मुक्तक भी परिवर्तन की एक विधा है और यदि यह छंद पुरी शिद्दत से लिखा जाए तो ना मात्र सिर्फ़ हममे परिवर्तन आता है बल्कि हमें यह दुनियादारी भी समझ आती है । डॉक्टर प्रकाश कान्त का गहरा अध्ययन , जीवन सिंह ठाकुर की पैनी राजनितिक दृष्टि , प्रभु जोशी का एक फंतासी दुनिया मे ले जाना और बार बार हम चमत्कृत से होते उन्हें सुनते रहते थे ......... मेरे प्रिय कवि चंद्रकांत देवताले का नाम लिए बगैर यह सब कैसे पुरा होगा? कुमार अम्बुज , विवेक गुप्ता हमारे मित्रो में से थे जो उन दिनों लगातार लिख रहे थे । दुनिया में परिवर्तन का दौर चल रहा था पुरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मन रहा था और यह माना जा रहा था कि बस अब विकास सबके हिस्से में ही होगा और हम जैसे बदलाव कि महत्व्कान्षा रखने वालो को लगता था कि सारा पढ़ा हुआ अब हकीकतो में तब्दील हो जाएगा ।रादुगा प्रकाशन मास्को कि सस्ती किताबे पढ़कर हम बड़े हुए थे , महाश्वेता देवी, शंकर, सत्यजीत राय निर्मल वर्मा जैसे लोगो को पढ़कर हम ना मात्र परिपक्व हुए बल्कि एक मोटी मोटी समझ विकसित हुई . निर्मल वर्मा का संसार हमें एक फंतासी में ले जाता था और पश्चिम की समझ भी विकसित हुई । निर्मल ने हमें पुरी सभ्यता को एक नए ढंग से देखने का नजरिया दिया . हंस , वागर्थ , पश्यन्ति, आजकल , जनमत , गंगा , साक्षात्कार, बहुवचन, और ढेरो पत्रिकाओ ने हमें छपने के मौके दिए। देश में वामपंथी सक्रिय थे ऐसा हमें लगता था और लगता था कि सर्वहारा के दिन अब आने वाले ही है और बस फ़िर क्या था खूब पढ़ना लिखना और खूब बहस करना ............ इस सबमे प्रमोद शामिल होता था अपनी आदतों और दारू के बावजूद भी वो हमेशा होश में रहता था और हम्सबसे खूब बहस करता था। वो बहुत ही अच्छे नवगीत लिखता था ये बहुत बाद में समझ आया । प्रमोद को दिखावे से बहुत चीढ़ थी और इन समाजवादियों को कोसता रहता था । नईमजी को भी गाली देता था ,मुझे यादहै कुमार गन्धर्व समारोह में वो पीछे बैठता था और फ़िर धीरे धीरे हमें कहता था कि नईमजी के गीतों में वो दम नही है , बुंदेलखंड का नाम लेकर ये भावनाओ को कैश कराते है , और अपने संबंधो को भी कैश कराते है, सारे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियो से सम्बन्ध बनाकर रखे है इन्होने .......... प्रमोद नईमजी के गीतों में मीटर और शब्दों की भी गलतिया निकालता था ,और हम उसके भाषा ज्ञान पर चमत्कृत थे और बाद में समझ आया कि उसका भाषा ज्ञान कितन वृहद् था ।प्रमोद ने हमारे भी कई जाले साफ किए थे इसीलिए वो सारी आदतों के बावजूद भी प्रिया व्यक्ति था । बहदुर से उसकी दोस्ती बहुत घनिष्ठ थी । उसके दो बेटे थे , विप्लव और पप्पी -बाद में जब मुखर्जी नगर में प्रमोद ने घर बना लिया तो एक बार गुस्से में एक बेटे ने एक आदमी का खून कर दिया था , उस कारन वो बड़ा परेशां रहा कई दिनों तक, शरीर साथ नही देता था , शिक्षा विभाग का भला हो कि उसे उज्जैन रोड के ही एक स्कूल में ही स्थानांतरित कर दिया था और वह दीक्षा प्रदीप दुबे जैसी भली शिक्षिका थी जिसने सब सम्हाल लिया था , प्रमोद स्कूल कभी जाता ही नही था बस घर पर ही रहता था । हा पीना जारी था बदस्तूर .......... एक ऑटो आखिरी दिनों में ,ऑटो वाला उसे शराब के अड्डे पर ले जाता था और प्रमोद पीकर लौट आता था घर पर एख भाभी ने भी समझौता कर लिया था हालाँकि रखा के साथ लड़ते लड़ते उसकी उम्र निकल गई थी, रेखा भी भौरांसा में पद्धति थी , पर क्या करती आखिर पति परमेश्वर होता है...प्रमोद कि एक आदत से सब परेशान थे उधार लेने की आदत से ........ वो अक्सर रात में आ जाता था और ले जाता था........ पर एक बात है उसने कभी उधारी बाकि नही रखी किसी की अब का नही पता क्योकि पिछले ५ बरसो से में भोपाल में हू तो जानकारी नही है पर मेरी जानकारी में उसने किसी की उधारी नही रखी..........अपनी बीमारी ने उसे मार डाला था , जीते जी आँखे लगभग अंधी हो गई थी फ़िर भी वो किसी को छोड़ता नही था , कहता था साले सम्पादक भी मादरचोद है सबके सब...... कुछ समझ नही है ,न भाषा की ,न कविता की और यहाँ चोर बैठे है सब ........... । प्रमोद जोर से हँसता था और कहता था की बस यार दिखता नही है बहादुर पटेल अपना पटवारी है और मेरा यार है वही कविताये रखेगा, दिनेश पटेल ने कुछ टाइप कर के रखी थी अब पता नही वो कहा होंगी । अक्सर अस्पताल और घर के बिच वो झूल रहा था बहादुर ही उसे इंदौर ले जाता और ले आता था पर हा अब वो लगभग शांत हो चला था । पिछले बरस मेरी माँ की जब मृत्यु हुई तो वो घर आया था और मुझे सम्जहते हुए बोला "यार संदीप , सबको मरना है प्यारे दुःख कहे को करता है में मरूँगा तो आयेगा कि नही... और धीरे धीरे बोलता रह था अपने बारे में और परिवार के बारे में । उसका बागली का प्रेम खत्म नही हुआ था बागली उसका अपना घर था और लगभग नौस्तल्जिया की तरह बागली उसके अन्दर जिन्दा था पूरी शिद्दत के साथ...........हंस में रविन्द्र कालिया ने एक कालम शुरू किया था "ग़ालिब छूटी शराब......" उसमे भी प्रमोद ने अपना खूब चिटठा लिखा था ......... देवास में तब लिखने वालो के दो ही समूह थे जो हंस में छपे है और जो हंस में नही छपे है ..........!!!! हम सब लोग धीरे धीरे हंस में छाप ही गए पर ये रविन्द्र कालिया बनाम प्रमोद की बहस को खूब पढ़ते थे और चर्चा भी करते थे।प्रमोद ने दरअसल में हिन्दी नवगीत को एक नै भाषा दी थी और एक नए तेवर के साथ वो लिखता था......प्रमोद और नईमजी को बॉम्बे अस्पताल ने लील लिया । नईमजी के मृत्यु के बाद वो भी टूटा था अन्दर से और लोगो की तरह पर कह नही सकता था क्योकि जिंदगी भर तो उन्हें गालिया देता रहा । मुझे नही पता की नईमजी की मृत्यु के बाद मातम पुरसी को गया था की नही पर नईमजी के घर के लोग जरुर जायेंगे उसके घर ये मेरा विश्वास है ।देवास में दो गीतकार रहे और इंदौर के एक ही अस्पताल ने दोनों को लील लिया यह कोई आतंक से कम है ,पर होनी को कोई टाल नही सकता यही सच है .......... बहादुर ने आखिरी तक साथ निभाया है तो निश्चित ही उसके पास स्मृतिया ज्यादा होंगी पर में सिर्फ़ यही कह सकता हु की प्रमोद तुम्हारे नए गीतों की अभी हमें जरुरत थी.पिछली बार वीर धवल पाटेकर ने अपने एवरेस्ट स्कूल में एक दिन का कार्यक्रम किया था तो हम सब साथ थे पुरा दिन कमोबेश और वो अन्ना ( प्रकाश कान्त )से मुह छिपाता रहा था । मुझसे बोला संदीप मुझे भोपाल आना है तेरे पास रुकूँगा और उस साले राजेंद्र बंधू से भी मिलूँगा जो उसका पुराना साथी था , मैंने कहा था में जब भी सात आठ दिन लगातार भोपाल में रहूँगा तभी बुलाऊंगा ताकि सबसे मिल सको और हम खूब गीत सुन सके और खूब बातें भी कर सके पर कहा हो पता है सोचा हुआ सब ........प्रमोद का जन देवास के साहित्य में एक शुन्य का हो जन है सिर्फ़ तीन माह में दो बड़े गीतकारों का यू चुपचाप एक ही अस्पताल में गुजर जाना बेहद खलता है , दोस्तों पर क्या कोई और इलाज है हमारे पास , सिवाय नमन कहने के ........नईमजी और प्रमोद आप दोनों बहुत याद आओगे .......... श्रद्धा सुमन ..............



Posted by Sandip Naik, Main Zindagi ka sath nibhata chala gaya

बुधवार, 5 अगस्त 2009

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविता



मेरे आसमान में




कौन देखता है जागकर दुनिया
देखकर कौन रोता है

मेरे आसमां में कौन रहता है
मेरे आसमाँ में कौन रोता है

धरती की चादर गीली होती है
ये किसके आँसू बरसते हैं

कौन आँसुओं में भीगता है
किसकी आँखों में झिलमिलाती है रात

रात को कौन देखता है दुनिया
देखकर कौन रोता है।