रविवार, 11 अक्तूबर 2009

सत्यनारायण पटेल का समयांतर में छापा आलेख




प्रगतिशील होने की



क़ीमत चुकानी पड़ती है






ख़ुद को वामपंथी या प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता कहना बहुत आसान है। लेकिन इससे कई गुना कठिन है, इस राह पर सतत चलते रहना। वामपंथी रचनाकार या कार्यकर्ता होने की बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब किसी भी कार्यकर्ता या रचनाकार के जीवन में क़ीमत चुकाने का क्षण आता है, वह उसकी असल परीक्षा की घड़ी होती है। तब कुछ तो अपने सारे सुख हार कर आगे बढ़ जाते हैं, कुछ लड़खड़ा जाते हैं, और यह बुदबुदाते हुए अपनी राह बदल लेते हैं कि सोचा था- लिखेंगे-पढ़ेंग, संघर्ष करेंगे और अपना होना सिद्ध करेंगे। फिर अपने होने की शोहरत और क़ीमत वसूलेंगे। लेकिन जब यथार्थ से आँखें चार होती हैं, और दूर तक भूख और अभाव का साम्राज्य नज़र आता है, तो पस्त हो जाता है। उस वक़्त उसे जो चमकीली और आकर्षित करने वाली राह दिखाई पड़ती है, उसी पर वह चल पड़ता है। यह तो मैं ऎसे नवोदित रचनाकार या कार्यकर्ता के बारे में बात कर रहा हूँ, जो वामपंथी या प्रगतिशील बनने की प्रक्रिया में होता है।
लेकिन जब किसी पर यह ठप्पा लग चुका होता है। उसकी सार्वजनिक छवि वामपंथी, प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता की बन चुकी होती है, तब उसे क़दम-क़दम पर वामपंथी होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है और इसमें अच्छे-अच्छों के छिलके उतर जाते हैं या कहो नानी याद आ जाती है। और अगर किसी प्रगतिशील, वामपंथी, जनवादी आदि..आदि.. का कोई मुखिया है, तो उसे ऎसी मिसालें क़ायम करनी पड़ती हैं, जिनके नये साथियो, सर्वहारा और आमजन के समक्ष पीढ़ी दर पीढ़ी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सके।
लेकिन आज देश में साहित्यिक, साँस्कृतिक आँदोलन बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है। मैं समझता हूँ कि किसी भी साँस्कृतिक, साहित्यिक और जन आँदोलन का स्वर्णिम दौर वह होता है, जिसमें वह सबसे कठिन, महत्त्वपूर्ण और कारगर संघर्ष करता है। लेकिन अफसोस कि कुछ कर गुज़रने की उदात्त इच्छा से भरे कई कार्यकर्ता और रचनाकार मौजूद होने के बावजूद शून्या बटा सन्नाटा है। जबकि यह ऎसा वक़्त है- जब साम्राज्यवादी ताक़त मंदी की मार से घायल पड़ी है।
आज साँस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक हर मोर्चे पर वामपंथी काम कर रहे हैं। जिनकी आँखों में समाजवाद का सपना झिलमिलाता है, वह एक बड़ी संख्या है, पर बिखरी हुई है और कई जगहों पर आपस में ही लड़-भिड़ एक दूसरे को कमज़ोर कर रही है। साम्राज्यवादी ताक़ते भी यही चाहती हैं कि उनका विरोध करने वाली विवेकवादी और संघर्षशील ताक़ते आपस में लड़-भिड़ कर अपना वक़्त, उर्जा और कार्यकर्ताओं को नष्ट करती रहे। जिससे साम्राज्यवादी सत्ता आसानी से अपनी जनविरोधी नीतियों के अनुरूप काम करती रह सके। ज़रूरत तो यह है कि इस बिखरी हुई ताक़त को इक्कठा कर साम्राज्यावाद के ख़िलाफ़ अजेय संघर्ष किया जाये। लेकिन राजनीतिक अपरिपक्वता और सत्ता से निकटता की महत्त्वकाँक्षा से लिथड़े नेतृत्व के चलते सबकुछ मटियामेट होता नज़र आ रहा है। वामपंथ, प्रगतिशील, जनवादी और आदि..आदि.. का नेतृत्व करने वाले कई एक बाद एक लगातार ऎसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे उनकी प्रतिबद्धता पोंची और लालची सिद्ध हो रही है। उनका विवेकवादी होना संदेहास्पद लगने लगा है। उनके कार्यकर्ताओं का, उनके रचनाकारों का उन पर से भरोसा उखड़ रहा है। कुछ साहित्यिक संगठनों की स्थितियाँ तो इस हद तक बिगड़ गयी है कि एक छोटे रचनाकार और कार्यकर्ता के द्वारा सवाल पूछने को अनुशासनहीनता माना जाने लगा है।

लेनिन की एक बात शब्दसः तो याद नहीं आ रही है, पर उसकी बात का मतलब याद आ रहा है, जो कुछ ऎसा है- व्यवस्था परिर्वतन की गतिविधि में लगा संगठन जब अपने साथियो का चुनाव करता है, तो उसे बहुत सतर्क होने की ज़रूरत होती है। चुनाव करते वक़्त ध्यान रखना चाहिए कि उसका दस सही साथियो को रिजक्ट कर देना छोटी भूल-ग़लती होगी, बनिस्बत एक ग़लत साथी का चुनाव कर लेने के। मुझे लगता है इन विवेकवादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों से इतिहास में कुछ ऎसी ही चूकें हुई हैं, जिनका खामियाजा पूरे वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन को भोगना पड़ रहा है। बात आज या कल की नहीं, कुछ लोगों का संगठन के भीतर सम्पूर्ण कार्यकाल संदेह के दायरे में रहा है।
कुछ कभी काँग्रेस के शासन काल में (सरकारी नौकरी के अलावा) सरकारी कला अकादमियों, साहित्यिक परिषदों, साहित्य अकादमियों, पीठों आदि..आदि संस्थाओं के पदों पर विराजमान होते रहे हैं। और यहाँ के साधन सुविधाओं का ख़ुद तो इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन इन्हीं साधन और सुविधाओं से विवेकवादी साहित्यिक, साँस्कृतिक संगठनों के भीतर कच्ची-पक्की समझ के रचनाकार या कार्यकर्ता को किसी न किसी तरह से ओबलाइज कर भ्रष्ट बनाने का भी काम करते रहे हैं। जिन्हें ये भ्रष्ट नहीं बना सके। जो इनके द्वारा फैलाये लालच के ज़ाल में फँसने से बचते रहे, उन्हें संगठन के भीतर कुचलने के प्रयास किये जाते रहे हैं। ऎसे साथियो की न केवल रचनाओं की उपेक्षा की जाती रही है, बल्कि उनके द्वारा संगठन के भीतर किये गये रचनात्मक कामों की भी उपेक्षा, आलोचना और असहयोग किया जाता रहा है। उन्हें इस हद तक मानसिक संत्रास दिया जाता है कि उनके सामने इनसे समझौता करने या आत्महत्या करने के सिवा कोई आसान रास्ता नहीं होता है। कुछ संगठनों के राज्य सम्मेलनों, जिला सम्मेलनों में पदों की चाह में मंच पर हाथापाई और गोली चलने तक के उदाहरण मौजूद हैं। इससे ज़्यादा निंदनीय और क्रूर स्थितियाँ, और क्या होगी ? यह संतोष की बात है कि अभी तक कोई जन हानी का उदाहरण सामने नहीं आया, लेकिन कभी आया भी तो आश्चर्यजनक न होगा।
लेकिन मैं फिर कहूँगा इन सब परिस्थितियों के बावजूद, प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार वही है, जो ऎसी तमाम टुच्ची और ओछी हरक़तों से पार पाकर भी दुनिया की बेहतरी के लिए लिखे और काम करे। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार होने की क़ीमत क़दम-क़दम पर चुकानी पड़ती है और यह सिलसिला आख़िरी सांस तक ज़ारी रहता है।

ये बात सही है कि साम्राज्यावादी ताक़तें बहुत ज़्यादा ताक़तवर और साधन सम्पन्न हैं, क्योंकि सत्ता उनके क़ब्जे में है। वह समय-समय पर तमाम तरह के प्रलोभन दिखाती है, जो छद्म प्रगतिशील या जनवादी होते हैं वे इन प्रलोभानों को देख लार टपकाने लगते हैं। हालाँकि ये प्रलोभन छोटे-मोटे पद, पुरस्कार, और कई बार तो साहित्यिक आयोजनों में बुलावे भर ही होते हैं। लेकिन जिसे सत्ता द्वारा फैंकी हड्डी का टुकड़ा चबाने की लत लग जाती है, वह ऎसे मामूली लालच को भी त्याग नहीं पाता है और वह इनमें शामिल होने की कोई तार्किक वजह खोज लेता है।
साम्राज्यवादी सत्ता कभी भी समझौता नहीं करती है। वह किसी क़ीमत पर यह नहीं कहती है कि अगर आप हमारे आयोजन में शामिल होंगे तो हम आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को उनके गाँव, घर, खेत, जंगल, ज़मीन से खदेड़ना बंद कर देंगे। सत्ता हमेशा लालची और छद्म प्रगतिशीलों, जनवादियों को कभी कंडोम और कभी नक़ाब की तरह युज करती है। मैं समझता हूँ कि हाल ही में (10-11 जुलाई 09 को) छत्तीसगढ़ के रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित ‘ राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी’ आयोजन भी कुछ इसी तरह की मंशा के साथ आयोजित किया गया था।
अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, सन 2000 में ही छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हुई है। स्थापना के बाद वहाँ की सरकारों ने समय-समय पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जो अनेक समझौते और वादे किये हैं उन्हीं को पूरा करने की उतावल की ख़ातिर आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को खदेड़ने का काम ज़ोर-शोर से ज़ारी है।
यह आयोजन उसी रायपुर में आयोजित किया गया था, जहाँ बेवजह डॉ. विनायक सेन को दो बरस तक जेल में सलाखों के पीछे रखा गया। उसी राज्य में जहाँ दंतेवाड़ा प्रशासन द्वारा गुंडई ढंग से 17 मई 09 को गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का आश्रम तोड़ दिया गया। उसी राज्य में जिसमें पिछले चार बरसों से सतत सलवा जुडूम के मार्फत न सिर्फ़ आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों, बल्कि औरतों और बच्चों तक को उनके संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखा जा रहा है।
भूखे, मज़दूर, किसान और आदिवासी, जो अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों को हासिल करने को, जो अपने जंगल, ज़मीन, गाँव, घर और ज़िन्दगी बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। उन्हीं की माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी के साथ कभी दिन के उजाले में और कभी रात के अंधेरे में सलवा जुडूम के विशेष पुलिस अधिकारी बलात्कार कर रहे हैं।

एक तरफ़ देश की सर्वोच्य न्यायालय के न्यायाधीश श्री अरिजीत पसायत और पी. सथसिवम, जुलाई 2008 को कहते हैं कि भारत में जैसी परिस्थितियाँ हैं उनमें शारीरिक दुर्व्यवहार की शिकार किसी महिला के बयान पर इस नियम के तहत कार्यवाही से इनकार करना कि इसकी पुष्टि करने के लिए कोई दूसरा सबूत नहीं है, घाव पर नमक छिड़कने जैसी बात है। परंपराओं से बंधे भारतीय समाज में कोई लड़की या महिला ऎसी किसी घटना को मानने तक के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगी, जिससे उसके चरित्र पर कीचड़ उछलने की संभावना हो। पीड़िता के बयान की पुष्टि के लिए किसी दूसरे सबूत की ज़रूरत नहीं है, जिसमें डॉक्टर द्वारा पुष्टि भी शामिल है। दूसरी तरफ़ जब सर्वोच्य न्यायालय पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से कहा कि वह सलवा जुडूम के लोगों पर हत्या, बलात्कार और आगजनी के जो आरोप लगे हैं उनकी जाँच करे। लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘कुछ विशेष आरोपों की जाँच के दौरान जाँच दल को बलात्कार का कोई भी ऎसा मामला नहीं मिला, जिसका कोई सबूत हो।
जब न्यायाधीश अपने कथन में कह ही चुके हैं कि बलात्कार के मामले में पीड़िता का बयान ही पर्याप्त है, तब मानवाधिकार के सदस्यों को सबूत ढूंढ़ने की ज़रूत ही क्या थी ? पीड़िताओं के बयानों को ही सबूत मानना चाहिए था। तहलका (15 अगस्त 09) को जिन बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान छपे हैं उन्हें पढ़ने के बाद किसी सबूत की ज़रूत महसूस करना अमानवीय है।
मैं उसी राज्य की बात कर रहा हूँ जिसमें मुक्तिबोध की किताब ‘भारतः इतिहास और संस्कृति’ आज तक प्रतिबंधित है। जिसमें चरण दास चोर 8 अगस्त 09 को प्रतिबंध लगाया गया है। जिसमें क़रीब 644 गाँव से आदिवासियों, किसानों और मज़दूरों खदेड़ा जा चुका है। जिसमें क़रीब पचास हज़ार से ज़्यादा लोगों को ज़बरन विस्थापित कर शिविरों में रहने को विवश किया जा रहा है, और वहाँ भी न उनकी बहू, बेटी, पत्नी की इज़्ज़त सुरक्षित है, न जान। जिस राज्य में दमन की कोई सीमा नहीं है। यह खेल काँग्रेस और भाजपा मिलकर खेल रही हैं। कार्पोरेट घरानों को ख़ुश करने के लिए यह सब किया जा रहा है, ऎसे राज्य के मुख्य मंत्री और उन सब लोगों के साथ आयोजन में शामिल होना, जो इस काम को अंजाम दे रहे हैं। मुझे लगता है कि इससे ज़्यादा किसी की चेतना का पतन नहीं हो सकता। यह बहुत ही शर्मनाक और घृणित काम है।
प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान आयोजन में कौन-कौन वामपंथी, जसम, जलेस और प्रलेसं के रचनाकार और मुखिया शामिल हुए ? समयांतर में छपे दोनों लेखों में उनके नामों का ज़िक्र नहीं हैं, जबकि होना चाहिए था। ताकि लोग उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह करे, जो शामिल हुए, न की संगठन की प्रगतिशीलता पर। मेरे पास शामिल हुए लोगों की कोई आधिकारिक सूचना या जानकारी नहीं है। लेकिन श्री प्रणय कृष्ण, श्री पंकज चतुर्वेदी के लेख और पंकज बिष्ट के संपादकीय पर अविश्वास की भी तो कोई वजह नहीं है। फिर प्रलेसं के ही कई साथियो ने इस संबंध में मुझसे बात की है और अपना रोष व्यक्त किया है।

ऎसी स्थिति में इस पूरे मामले में मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि म.प्र. प्रलेसं, की इन्दौर इकाई का सचिव होने के नाते, और म.प्र. प्रलेसं का राज्य उपमासचिव होने के नाते, उस आयोजन में अगर जसम, जलेस, प्रलेसं के रचानाकार शामिल हुए हैं , तो मैं संगठनों की नहीं, उन रचनाकारों की कड़ी नींदा करता हूँ जो शामिल हुए हैं, और उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह व्यक्त करता हूँ।
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11 (म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com

सोमवार, 31 अगस्त 2009

प्रमोद उपाध्याय के नवगीत

एक
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।

आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि या
कि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।

इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।


शंख सीपियों का पड़ौस हैहंस उड़ें अढ़ाई कोस है
घिसी-पिटी लीकों पर चलना
आँख मींच मक्खियाँ निगलना।

अटक रहा है थूक गले में
कैसे और बिलोयें कब तक
मृतकों के मुख में गंगाजल
टोयें तो टोयें कब तक।

दो

चल पड़ी है
बैलगाड़ी
मण्डियों की ओर
इन गडारों से
नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी
ओंठ पर
मुस्कान लेकर
आज होरी
चल पड़ा है गुनगुनाता
मण्डियों की ओर
इन गडारों से।

लगी भुगतान बिलों परअंगुठे की निशानी
ज्यों कि कुल्हों पर चुभी
ख़ुद की पिरानी
इस बरस भी
तमतमाते, स्याह ये चेहरे
बैरंग लौटे हैंइन गडारों से।

रविवार, 9 अगस्त 2009

नवगीतकार प्रमोद उपाध्याय के निधन पर

0६.०८.०९ की रात ११.४५ के लगभग भाई प्रमोद उपाध्याय के निधन पर संदीप नाईक ने बहुत डूबकर लिखा उनके ब्लॉग से आपके लिए यहाँ भी पोस्ट कर कर रहा हूँ ।

प्रमोद उपाध्याय का गुजर जाना

यानि कि हिन्दी के नवगीत में

एक और शून्य का उपजना

आजकल बहादुर के फ़ोन आते ही डर लगने लगता है कि पता नही किसके मौत का पैगाम दे रहा हो । ऐसा ही कुछ आज हुआ दोपहर में बैठा कुछ काम कर रहा था कि उसका फ़ोन आया दिल धक्क से रह गया कि हो न हो मेरे अपने शहर में कुछ गंभीर हो गया है । जैसे ही फ़ोन उठाया वह बोला भाईसाहब एक बुरी ख़बर है मैंने कहा कि साला अब क्या हो गया , तो बोला कि प्रमोद का कल रात बारह बजे इंदौर में देहांत हो गया में चौक गया कि ये सब क्या हो गया, कहा तो वो भोपाल आने वाला था मुझसे हमेशा कहता था कि संदीप तेरे पास आकर रहूँगा और में हंसकर टाल देता था। देवास हमारा अपना कस्बा था जहा मै पढ़ा लिखा और सारे संस्कार लिए। लिखना पढ़ना मेरे अन्दर डालने वालो मे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, विष्णु चिंचालकर "गुरूजी", बाबा डिके, कालांतर मे जीवन सिंह ठाकुर डॉक्टर प्रकाश कान्त , प्रभु जोशी और मेरे अज़ीज़ दोस्त बहादुर पटेल और मनीष वैद्य का नाम लिए बगैर सब व्यर्थ हो जाएगा। बाद मे पता चला कि नईम और भी दीगर लेखक थे जो राष्ट्रीय स्तर पर नाम और काम के कारण जाने जाते थे। प्रमोद उपाध्याय उसी गाँव के थे, जहा मेरी माँ ने सन सत्तर के दशक मे बालिका शिक्षा के लिए अलख जगाया था भौरांसा । प्रमोद एक अच्छे नवगीतकार थे यह बाद मे पता चला, पर जब मे एकलव्य मे काम करता था तो अक्सर उनके घर पर मुलाक़ात हो जाती थी जब वो नाहर दरवाजे पर कोठारी के मकान मे रहते थे । पत्नी रेखा भी एक शिक्षिका ही थी और भौरांसा मे पढाती थी दो बच्चे थे विप्लव और पप्पी दूसरे का नाम मुझे याद नही आ रहा , प्रमोद से खूब गप्पे होती थी रवि का ख़ास दोस्त था तम्बाखू की दोस्ती कब करीबी दोस्ती मे बदल गई हमें पता ही नही चला ।धीरे धीरे प्रमोद को शराब की आदत लग गई और वह बेतहाशा पीने लगा। उसकी तबियत ख़राब रहने लगी स्कूल का जाना आना कम होता गया । हा उसके नवगीत खूब छपने लगे थे । देवास में तब लिखने पढ़ने का बहुत माहौल हुआ करता था । देश में एक जबरदस्त परिवर्तन की आंधी चल रही थी हम लोग खूब पढ़ते थे , सच कहू तो लिखने पढने का संस्कार डालने वालो में जूनून था कि एक नै पौध तैयार करना है और परिवर्त लाना है देश का समाज का विकास करना है सारी सडी गली मान्यताओ को बदलना है , एक अजीब किस्म का खुमार था हम युवाओ पर और ऐसा भी नही कि यह कोई इतिहास में पहली बार हो रहा हो । मुझे लगता है कि में बहुत भाग्यशाली हु कि मुझे राहुल बारपुते, कुमार गन्धर्व, बाबा डीके और विष्णु चिंचालकर" गुरूजी" जैसे लोगो का साथ मिला , मै कह सकता हू कि मैंने इन्हे देखा ,छुआ और इनसे सिखा है । कालांतर मै देवास मे नईमजी के साथ नवगीत क्या होता है यह जाना तब समझ आया कि मुक्तक भी परिवर्तन की एक विधा है और यदि यह छंद पुरी शिद्दत से लिखा जाए तो ना मात्र सिर्फ़ हममे परिवर्तन आता है बल्कि हमें यह दुनियादारी भी समझ आती है । डॉक्टर प्रकाश कान्त का गहरा अध्ययन , जीवन सिंह ठाकुर की पैनी राजनितिक दृष्टि , प्रभु जोशी का एक फंतासी दुनिया मे ले जाना और बार बार हम चमत्कृत से होते उन्हें सुनते रहते थे ......... मेरे प्रिय कवि चंद्रकांत देवताले का नाम लिए बगैर यह सब कैसे पुरा होगा? कुमार अम्बुज , विवेक गुप्ता हमारे मित्रो में से थे जो उन दिनों लगातार लिख रहे थे । दुनिया में परिवर्तन का दौर चल रहा था पुरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मन रहा था और यह माना जा रहा था कि बस अब विकास सबके हिस्से में ही होगा और हम जैसे बदलाव कि महत्व्कान्षा रखने वालो को लगता था कि सारा पढ़ा हुआ अब हकीकतो में तब्दील हो जाएगा ।रादुगा प्रकाशन मास्को कि सस्ती किताबे पढ़कर हम बड़े हुए थे , महाश्वेता देवी, शंकर, सत्यजीत राय निर्मल वर्मा जैसे लोगो को पढ़कर हम ना मात्र परिपक्व हुए बल्कि एक मोटी मोटी समझ विकसित हुई . निर्मल वर्मा का संसार हमें एक फंतासी में ले जाता था और पश्चिम की समझ भी विकसित हुई । निर्मल ने हमें पुरी सभ्यता को एक नए ढंग से देखने का नजरिया दिया . हंस , वागर्थ , पश्यन्ति, आजकल , जनमत , गंगा , साक्षात्कार, बहुवचन, और ढेरो पत्रिकाओ ने हमें छपने के मौके दिए। देश में वामपंथी सक्रिय थे ऐसा हमें लगता था और लगता था कि सर्वहारा के दिन अब आने वाले ही है और बस फ़िर क्या था खूब पढ़ना लिखना और खूब बहस करना ............ इस सबमे प्रमोद शामिल होता था अपनी आदतों और दारू के बावजूद भी वो हमेशा होश में रहता था और हम्सबसे खूब बहस करता था। वो बहुत ही अच्छे नवगीत लिखता था ये बहुत बाद में समझ आया । प्रमोद को दिखावे से बहुत चीढ़ थी और इन समाजवादियों को कोसता रहता था । नईमजी को भी गाली देता था ,मुझे यादहै कुमार गन्धर्व समारोह में वो पीछे बैठता था और फ़िर धीरे धीरे हमें कहता था कि नईमजी के गीतों में वो दम नही है , बुंदेलखंड का नाम लेकर ये भावनाओ को कैश कराते है , और अपने संबंधो को भी कैश कराते है, सारे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियो से सम्बन्ध बनाकर रखे है इन्होने .......... प्रमोद नईमजी के गीतों में मीटर और शब्दों की भी गलतिया निकालता था ,और हम उसके भाषा ज्ञान पर चमत्कृत थे और बाद में समझ आया कि उसका भाषा ज्ञान कितन वृहद् था ।प्रमोद ने हमारे भी कई जाले साफ किए थे इसीलिए वो सारी आदतों के बावजूद भी प्रिया व्यक्ति था । बहदुर से उसकी दोस्ती बहुत घनिष्ठ थी । उसके दो बेटे थे , विप्लव और पप्पी -बाद में जब मुखर्जी नगर में प्रमोद ने घर बना लिया तो एक बार गुस्से में एक बेटे ने एक आदमी का खून कर दिया था , उस कारन वो बड़ा परेशां रहा कई दिनों तक, शरीर साथ नही देता था , शिक्षा विभाग का भला हो कि उसे उज्जैन रोड के ही एक स्कूल में ही स्थानांतरित कर दिया था और वह दीक्षा प्रदीप दुबे जैसी भली शिक्षिका थी जिसने सब सम्हाल लिया था , प्रमोद स्कूल कभी जाता ही नही था बस घर पर ही रहता था । हा पीना जारी था बदस्तूर .......... एक ऑटो आखिरी दिनों में ,ऑटो वाला उसे शराब के अड्डे पर ले जाता था और प्रमोद पीकर लौट आता था घर पर एख भाभी ने भी समझौता कर लिया था हालाँकि रखा के साथ लड़ते लड़ते उसकी उम्र निकल गई थी, रेखा भी भौरांसा में पद्धति थी , पर क्या करती आखिर पति परमेश्वर होता है...प्रमोद कि एक आदत से सब परेशान थे उधार लेने की आदत से ........ वो अक्सर रात में आ जाता था और ले जाता था........ पर एक बात है उसने कभी उधारी बाकि नही रखी किसी की अब का नही पता क्योकि पिछले ५ बरसो से में भोपाल में हू तो जानकारी नही है पर मेरी जानकारी में उसने किसी की उधारी नही रखी..........अपनी बीमारी ने उसे मार डाला था , जीते जी आँखे लगभग अंधी हो गई थी फ़िर भी वो किसी को छोड़ता नही था , कहता था साले सम्पादक भी मादरचोद है सबके सब...... कुछ समझ नही है ,न भाषा की ,न कविता की और यहाँ चोर बैठे है सब ........... । प्रमोद जोर से हँसता था और कहता था की बस यार दिखता नही है बहादुर पटेल अपना पटवारी है और मेरा यार है वही कविताये रखेगा, दिनेश पटेल ने कुछ टाइप कर के रखी थी अब पता नही वो कहा होंगी । अक्सर अस्पताल और घर के बिच वो झूल रहा था बहादुर ही उसे इंदौर ले जाता और ले आता था पर हा अब वो लगभग शांत हो चला था । पिछले बरस मेरी माँ की जब मृत्यु हुई तो वो घर आया था और मुझे सम्जहते हुए बोला "यार संदीप , सबको मरना है प्यारे दुःख कहे को करता है में मरूँगा तो आयेगा कि नही... और धीरे धीरे बोलता रह था अपने बारे में और परिवार के बारे में । उसका बागली का प्रेम खत्म नही हुआ था बागली उसका अपना घर था और लगभग नौस्तल्जिया की तरह बागली उसके अन्दर जिन्दा था पूरी शिद्दत के साथ...........हंस में रविन्द्र कालिया ने एक कालम शुरू किया था "ग़ालिब छूटी शराब......" उसमे भी प्रमोद ने अपना खूब चिटठा लिखा था ......... देवास में तब लिखने वालो के दो ही समूह थे जो हंस में छपे है और जो हंस में नही छपे है ..........!!!! हम सब लोग धीरे धीरे हंस में छाप ही गए पर ये रविन्द्र कालिया बनाम प्रमोद की बहस को खूब पढ़ते थे और चर्चा भी करते थे।प्रमोद ने दरअसल में हिन्दी नवगीत को एक नै भाषा दी थी और एक नए तेवर के साथ वो लिखता था......प्रमोद और नईमजी को बॉम्बे अस्पताल ने लील लिया । नईमजी के मृत्यु के बाद वो भी टूटा था अन्दर से और लोगो की तरह पर कह नही सकता था क्योकि जिंदगी भर तो उन्हें गालिया देता रहा । मुझे नही पता की नईमजी की मृत्यु के बाद मातम पुरसी को गया था की नही पर नईमजी के घर के लोग जरुर जायेंगे उसके घर ये मेरा विश्वास है ।देवास में दो गीतकार रहे और इंदौर के एक ही अस्पताल ने दोनों को लील लिया यह कोई आतंक से कम है ,पर होनी को कोई टाल नही सकता यही सच है .......... बहादुर ने आखिरी तक साथ निभाया है तो निश्चित ही उसके पास स्मृतिया ज्यादा होंगी पर में सिर्फ़ यही कह सकता हु की प्रमोद तुम्हारे नए गीतों की अभी हमें जरुरत थी.पिछली बार वीर धवल पाटेकर ने अपने एवरेस्ट स्कूल में एक दिन का कार्यक्रम किया था तो हम सब साथ थे पुरा दिन कमोबेश और वो अन्ना ( प्रकाश कान्त )से मुह छिपाता रहा था । मुझसे बोला संदीप मुझे भोपाल आना है तेरे पास रुकूँगा और उस साले राजेंद्र बंधू से भी मिलूँगा जो उसका पुराना साथी था , मैंने कहा था में जब भी सात आठ दिन लगातार भोपाल में रहूँगा तभी बुलाऊंगा ताकि सबसे मिल सको और हम खूब गीत सुन सके और खूब बातें भी कर सके पर कहा हो पता है सोचा हुआ सब ........प्रमोद का जन देवास के साहित्य में एक शुन्य का हो जन है सिर्फ़ तीन माह में दो बड़े गीतकारों का यू चुपचाप एक ही अस्पताल में गुजर जाना बेहद खलता है , दोस्तों पर क्या कोई और इलाज है हमारे पास , सिवाय नमन कहने के ........नईमजी और प्रमोद आप दोनों बहुत याद आओगे .......... श्रद्धा सुमन ..............



Posted by Sandip Naik, Main Zindagi ka sath nibhata chala gaya

बुधवार, 5 अगस्त 2009

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविता



मेरे आसमान में




कौन देखता है जागकर दुनिया
देखकर कौन रोता है

मेरे आसमां में कौन रहता है
मेरे आसमाँ में कौन रोता है

धरती की चादर गीली होती है
ये किसके आँसू बरसते हैं

कौन आँसुओं में भीगता है
किसकी आँखों में झिलमिलाती है रात

रात को कौन देखता है दुनिया
देखकर कौन रोता है।

रविवार, 12 अप्रैल 2009

कवि की कलाकारी


वरिष्ठ कवि
श्री चंद्रकांत देवताले
की दो
पेंटिंग यहाँ


गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

नवगीतकार नईम का जाना दुखी कर गया .

नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर , गज़लकार एवं काष्ठशिल्पी नईम लंबे समय से बीमार थे । वे इंदौर के एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान आज दिनांक ९.०४.२००९ को इस दुनिया में नहीं रहे । वे देवास में रहे । देवास को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया । हिन्दी साहित्य में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । वे आज हमारे बीच नहीं है। लेकिन उनका लेखन हमेशा हमारे बीच उन्हें मौजूद रखेगा । उन्हें हम सभी साहित्यिक साथियों की और से विनम्र अश्रुपूरित श्रद्धांजलि पेश है । उन्हें दिनांक १०.०४.२००९ शुक्रवार को सुबह ११ बजे अन्तिम बिदाई दी जायेगी ।
श्रद्धांजलि देते हुए उनका एक गीत प्रस्तुत है।

नवगीत


खाली हाथ लिए आया था
खाली ही दिन चला गया ।

वो क्या आया, हम ही बस यूँ ही आये थे
भीतर से आधे बाहर से किंतु सवाये थे
फंसा निरर्थकता के पाटों में
अपने हाथों दला गया ।

राजी नहीं हुआ भरने को अपना ही मन,
हुआ माटिया हाथ लगाये सोने सा धन
अपना भाड़ न फोड़ सका
औरों के हाथों तला गया ।

चले गए यूँ ही दिन खाली चले गए खाली,
उतर गई बालों की स्याही, चेहरे की लाली
बिना बुलाये आया था जो
बिना रुके ही भला गया ।

सोमवार, 16 मार्च 2009

कुमार अम्बुज की कविता

कोई है मांजता हुआ मुझे


कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे
चमकाता हुआ रोम-रोम
रगड़ता
ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई
इतिहास की राख से
मांजता है कोई


मैं जैसे एक पुराना तांबे का पात्र
मांजता है जिसे कोई अम्‍लीय कठोर
और सुंदर भी बहुत
एक स्‍वप्‍न कभी कोई स्‍मृति
एक तेज़ सीधी निगाह
एक वक्रता
एक हंसी मांजती है मुझे


कर्कश आवाज़ें
ज़मीन पर उलट-पलटकर रखे-पटके जाने की
और मांजते चले जाने की
अणु-अणु तक पहुंचती मांजने की यह धमक
दौड़ती है नसों में बिजलियां बन
चमकती है


धोता है कोई फिर
अपने समय के जल की धार से
एक शब्‍द मांजता है मुझे
एक पंक्ति मांजती रहती है
अपने खुरदरे तार से.

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

बोधिसत्व की कविता

माँ का नाच

कई स्त्रियाँ थीं
नाच रही थीं, गाते हुए ।

वे खेत में नाच रही थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच ।

कोई पीली साडी पहने थी
कोई धानी
कोई गुलाबी
कोई जैसे जोगन ,
सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
एक दूसरे की
थोडी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।

कुछ देर बाद बारी आयी माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत ।

माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
जो नाच चुकी थीं वे भी , अचंभित
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ

मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान

वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।

(बोधिसत्व , हरिओम राजोरिया , विवेक गुप्ता की इन कविताओं पर कुमार अम्बुज जी की टिप्पणियां बाद में पोस्ट करूँगा अभी आप कवितायें पढ़ें और अपनी टिप्पणियां दें । )

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

विवेक गुप्ता की कविता



वह एक घर था एसा

वह एक घर था एसा
जिसकी छत थी निरंतर झरती हुई
दीवारें कंपकंपाती थीं धमक से
जिनमे हिलती हुई चौखटें जडी थीं
और दरवाजे नहीं थे
रहने के लिए घर में
घर के लोगों ने उन पर टाट के झीने परदे लटका दिए थे

वह एक घर था एसा
कि बकरियां आतीं तो चबाने लगतीं टाट
बिल्लियों के लिए टाट कोई बाधा नहीं थी
रस्ते चलते मवेशी यूँ ही झांक जाते थे
जैसे पूछते हुए 'क्या हो रहा है '
मुर्गियां अपने बच्चों की पूरी पलटन के साथ
टहलने चली आतीं घर में
चूजे कुंकियाते , फुदकते हुए बर्तनों और बिस्तरों में घुस जाते
घर के लोग काम छोड़कर पहले निकालते उन्हें
कि कहीं पैर न पड़ जाए उन पर
शाम को खाना पकने कि गंध पाकर सूंघते हुए आते कुत्ते
झांकते इस तरह कि अभी देर हो थोडी
तो आऊं गली का एक चक्कर लगाकर

हवा के लिए कोई रोकटोक नहीं थी घर में
परदों को झंडों की तरह लहराती हुई
धुल के साथ-साथ वह आती-जाती रहती थी
बारिश होती
तो बूँदें घुस आतीं भीतर तक
फर्श पर टपाटप पड़ती हुई
पूरे घर और उसमें रहनेवालों को भिगोती
भीतर एक धुआं सा भरा रहता घर में
सुबह उठो तो कुछ दिखाई नहीं देता था
देखते रहने पर धीरे-धीरे खुलता था घर

घर के लोग बने रहते थे घर में
भीगते छींकते खांसते तपते
ठिठुरकर
एक दूसरे को टटोलते हुए
अक्सर वे चुपचाप दुबके रहते बिस्तरों में
बाहर की इतनी आवाजें इतनी आवाजाही थी घर में
कि घर के लोग आपस में बहुत काम बोल पाते थे
बोलते तो बहुत धीमे फुसफुसाकर
आवाज करने में एक डर-सा लगता था
वे पैर दबाकर चलते
जैसे नींद में चल रहे हों तैरते हुए
सामान धीरे-धीरे उठाते रखते बेआवाज

बार-बार सामान उठाते पटकते
उसे बारिश से बचाते-बचाते
आ जाती थीं ठण्ड
बर्तनों में जम जाता था पाला
उसे साफ करते-करते आ जाता पतझड़
धूल और पत्तों से भर जाता था घर
बुहारते-बुहारते चलने लगती थी लू
जब दोपहर से सन्नाटे में घर भांय-भांय बजाने लगता
लू के थपेडों के बीच
वे पुराने काम निकालकर बैठ जाते
संदूक खोलकर कपडे झाड़ते दोबारा तहें जमाते हुए
खटते-खटते काट देते गर्मियां
इस तरह करते फिर बारिश आने का इंतजार ।

सोमवार, 26 जनवरी 2009

मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल के वागीश्वरी सम्मान के अवसर पर कुछ बातें

दिनांक २४ एवं २५.०१.२००९ को भोपाल में एक आयोजन हुआ । आयोजन था मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल के वागीश्वरी सम्मान का । २००८ का यह सम्मान कहानी विधा के लिए श्री सत्यनारायण पटेल (इंदौर) को उनके कहानी संकलन "भेम का भेरू मांगता कुल्हाडी इमान" तथा श्री भालचंद्र जोशी (खरगोन) को उनके कहानी संग्रह "चरसा" पर दिया गया। कविता के लिए श्री दिनेश कुशवाह (रीवा) को उनके कविता संग्रह "इसी काया में मोक्ष " पर दिया गया । आलोचना के लिए अमरकांत के कथा साहित्य पर काम करने के लिए डॉ.बहादुर सिंह परमार (छतरपुर) को दिया गया ।

दो दिवसीय इस कार्यक्रम में डॉ.नामवर सिंह सहित कई ख्यात साहित्यकारों ने इस आयोजन की शोभा बढ़ाई। जिसमे सर्वश्री चंद्रकांत पाटिल (मराठी कवि), चंद्रकांत देवताले ,विजय कुमार, भगवत रावत, आग्नेय, डॉ.कमलाप्रसाद (महामंत्री ,साहित्य सम्मेलन), अक्षय कुमार जैन (अध्यक्ष, साहित्य सम्मेलन), राजेश जोशी , कुमार अम्बुज , लीलाधर मंडलोई , राजेंद्र शर्मा , निलेश रघुवंशी, डॉ.उर्मिला शिरीष, हरि भटनागर , मुकेश वर्मा , भालचंद्र जोशी ,सत्यनारायण पटेल, दिनेश कुशवाह, बहादुर सिंह परमार, जीतेन्द्र चौहान, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, आदि कई साहित्यकार उपस्थित थे ।
दिनांक २४.०१.०९ को पहला सत्र कविता पर केंद्रित था । दूसरे सत्र में पुरस्कार प्रदान किए गए तथा कई पुस्तकों का विमोचन किया गया । इस अवसर पर हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है ।
दिनांक २५.०१.२००९ को पहले सत्र में कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने अपनी पसंद की तीन कविताओं पर बात की ।
श्री कुमार अम्बुज ने हरिओम राजोरिया की कविता "चंदूलाल कटनीवाले" श्री विवेक गुप्ता की कविता "वह एक घर था एसा " श्री बोधिसत्व की कविता "माँ का नाच" को उल्लेखनीय बताया।
इन कविताओं को मैं एक - एक कर यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.
दूसरे सत्र में कविता पाठ हुआ जिसमे कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया ।


चंदूलाल कटनीवाले

(हरिओम राजोरिया)

इस क़स्बे में उनका आखिरी पड़ाव था

वे सरकारी खर्च पर कबीर को गाने आए थे

सरकार की तरफ़ से थी व्यवस्था उनकी

एस.डी.एम.ने तहसीलदार से कहा

तहसीलदार ने गिरदावर से

गिरदावर ने पटवारियों से

पटवारियों ने दिलवा दिया था उन्हें माइक

स्कूल के हॉल में कुर्सियां पहले से पड़ी थीं

ताँगे में ऐलान हुआ था सरकारी ढंग का

जिसमे चंदूलाल कटनीवाले से ज्यादा

सरकार के संस्कृति विभाग का जिक्र हुआ

इतना सब होने के बाद चंदूलाल को सुनने

आए पचासेक लोग

आर्गन पर एक लड़का बैठा था

जिसका चेहरा बहुत सुंदर था

अपनी पोलियोग्रस्त टांगों को उसने

सफाई से छुपा लिया था आर्गन के उस तरफ़

और बैसाखियाँ सरका दी थीं परेड के पीछे

तबलावादक एसा जान पड़ता था

जैसे किसी ध्वस्त मकान के मलबे में से

अभी निकलकर आया हो बाहर

उसे मुस्कराने का कोई अभ्यास नहीं था

पर वह मुस्कराए जा रहा था लगातार

चंदूलाल तनकर बैठे थे हारमोनियम लिए

आठ घड़ी किया शाल पड़ा था उनके कन्धों पर

गाने को तत्पर थे चंदूलाल

पर जुट नहीं रहे थे उतने लोग

उनके झक सफ़ेद कपडों में

चुपके से आकर दुबक गई थी उदासी

बेमन से गाने को हुए ही थे चंदूलाल

इतने में अचानक आ गए अपर साहब

अपर साहब को आता देख

खड़े हो गए श्रोता

खड़ा हो गया सरकारी तंत्र

चंदूलाल के गले में अटक गए कबीर भी

खड़े हो गए चंदूलाल के साथ ।

(विवेक गुप्ता की कविता अगली बार )


सोमवार, 5 जनवरी 2009

शरद बिल्लौरे की कविता

जब तक शरद बिल्लौरे जीवित रहे उनका लिखा हुआ बहुत कम प्रकाशित हो पाया था । केवल २५ वर्ष की अल्पायु में उनका दु:खद निधन हो गया था। इस कविता के लिए उन्हें उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद १९८३ के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया था .१९८३ के निर्णायक थे नामवर सिंह ।


तय तो यही हुआ था


सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकडों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा खा कर
नसों से बहार निकल आया था

तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर कि तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काटकर
बाज को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे

सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हर कर मैं

samucha hi taraju par chadh gaya

aasaman se phool nahin barase

kabootar ne koi doosara roop nahin liya

aur maine dekha

baaj ki dadh me

aadami ka khoon lag chuka hai .