रविवार, 11 अक्तूबर 2009

सत्यनारायण पटेल का समयांतर में छापा आलेख




प्रगतिशील होने की



क़ीमत चुकानी पड़ती है






ख़ुद को वामपंथी या प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता कहना बहुत आसान है। लेकिन इससे कई गुना कठिन है, इस राह पर सतत चलते रहना। वामपंथी रचनाकार या कार्यकर्ता होने की बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब किसी भी कार्यकर्ता या रचनाकार के जीवन में क़ीमत चुकाने का क्षण आता है, वह उसकी असल परीक्षा की घड़ी होती है। तब कुछ तो अपने सारे सुख हार कर आगे बढ़ जाते हैं, कुछ लड़खड़ा जाते हैं, और यह बुदबुदाते हुए अपनी राह बदल लेते हैं कि सोचा था- लिखेंगे-पढ़ेंग, संघर्ष करेंगे और अपना होना सिद्ध करेंगे। फिर अपने होने की शोहरत और क़ीमत वसूलेंगे। लेकिन जब यथार्थ से आँखें चार होती हैं, और दूर तक भूख और अभाव का साम्राज्य नज़र आता है, तो पस्त हो जाता है। उस वक़्त उसे जो चमकीली और आकर्षित करने वाली राह दिखाई पड़ती है, उसी पर वह चल पड़ता है। यह तो मैं ऎसे नवोदित रचनाकार या कार्यकर्ता के बारे में बात कर रहा हूँ, जो वामपंथी या प्रगतिशील बनने की प्रक्रिया में होता है।
लेकिन जब किसी पर यह ठप्पा लग चुका होता है। उसकी सार्वजनिक छवि वामपंथी, प्रगतिशील रचनाकार या कार्यकर्ता की बन चुकी होती है, तब उसे क़दम-क़दम पर वामपंथी होने की क़ीमत चुकानी पड़ती है और इसमें अच्छे-अच्छों के छिलके उतर जाते हैं या कहो नानी याद आ जाती है। और अगर किसी प्रगतिशील, वामपंथी, जनवादी आदि..आदि.. का कोई मुखिया है, तो उसे ऎसी मिसालें क़ायम करनी पड़ती हैं, जिनके नये साथियो, सर्वहारा और आमजन के समक्ष पीढ़ी दर पीढ़ी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सके।
लेकिन आज देश में साहित्यिक, साँस्कृतिक आँदोलन बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है। मैं समझता हूँ कि किसी भी साँस्कृतिक, साहित्यिक और जन आँदोलन का स्वर्णिम दौर वह होता है, जिसमें वह सबसे कठिन, महत्त्वपूर्ण और कारगर संघर्ष करता है। लेकिन अफसोस कि कुछ कर गुज़रने की उदात्त इच्छा से भरे कई कार्यकर्ता और रचनाकार मौजूद होने के बावजूद शून्या बटा सन्नाटा है। जबकि यह ऎसा वक़्त है- जब साम्राज्यवादी ताक़त मंदी की मार से घायल पड़ी है।
आज साँस्कृतिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक हर मोर्चे पर वामपंथी काम कर रहे हैं। जिनकी आँखों में समाजवाद का सपना झिलमिलाता है, वह एक बड़ी संख्या है, पर बिखरी हुई है और कई जगहों पर आपस में ही लड़-भिड़ एक दूसरे को कमज़ोर कर रही है। साम्राज्यवादी ताक़ते भी यही चाहती हैं कि उनका विरोध करने वाली विवेकवादी और संघर्षशील ताक़ते आपस में लड़-भिड़ कर अपना वक़्त, उर्जा और कार्यकर्ताओं को नष्ट करती रहे। जिससे साम्राज्यवादी सत्ता आसानी से अपनी जनविरोधी नीतियों के अनुरूप काम करती रह सके। ज़रूरत तो यह है कि इस बिखरी हुई ताक़त को इक्कठा कर साम्राज्यावाद के ख़िलाफ़ अजेय संघर्ष किया जाये। लेकिन राजनीतिक अपरिपक्वता और सत्ता से निकटता की महत्त्वकाँक्षा से लिथड़े नेतृत्व के चलते सबकुछ मटियामेट होता नज़र आ रहा है। वामपंथ, प्रगतिशील, जनवादी और आदि..आदि.. का नेतृत्व करने वाले कई एक बाद एक लगातार ऎसे उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे उनकी प्रतिबद्धता पोंची और लालची सिद्ध हो रही है। उनका विवेकवादी होना संदेहास्पद लगने लगा है। उनके कार्यकर्ताओं का, उनके रचनाकारों का उन पर से भरोसा उखड़ रहा है। कुछ साहित्यिक संगठनों की स्थितियाँ तो इस हद तक बिगड़ गयी है कि एक छोटे रचनाकार और कार्यकर्ता के द्वारा सवाल पूछने को अनुशासनहीनता माना जाने लगा है।

लेनिन की एक बात शब्दसः तो याद नहीं आ रही है, पर उसकी बात का मतलब याद आ रहा है, जो कुछ ऎसा है- व्यवस्था परिर्वतन की गतिविधि में लगा संगठन जब अपने साथियो का चुनाव करता है, तो उसे बहुत सतर्क होने की ज़रूरत होती है। चुनाव करते वक़्त ध्यान रखना चाहिए कि उसका दस सही साथियो को रिजक्ट कर देना छोटी भूल-ग़लती होगी, बनिस्बत एक ग़लत साथी का चुनाव कर लेने के। मुझे लगता है इन विवेकवादी साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों से इतिहास में कुछ ऎसी ही चूकें हुई हैं, जिनका खामियाजा पूरे वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन को भोगना पड़ रहा है। बात आज या कल की नहीं, कुछ लोगों का संगठन के भीतर सम्पूर्ण कार्यकाल संदेह के दायरे में रहा है।
कुछ कभी काँग्रेस के शासन काल में (सरकारी नौकरी के अलावा) सरकारी कला अकादमियों, साहित्यिक परिषदों, साहित्य अकादमियों, पीठों आदि..आदि संस्थाओं के पदों पर विराजमान होते रहे हैं। और यहाँ के साधन सुविधाओं का ख़ुद तो इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन इन्हीं साधन और सुविधाओं से विवेकवादी साहित्यिक, साँस्कृतिक संगठनों के भीतर कच्ची-पक्की समझ के रचनाकार या कार्यकर्ता को किसी न किसी तरह से ओबलाइज कर भ्रष्ट बनाने का भी काम करते रहे हैं। जिन्हें ये भ्रष्ट नहीं बना सके। जो इनके द्वारा फैलाये लालच के ज़ाल में फँसने से बचते रहे, उन्हें संगठन के भीतर कुचलने के प्रयास किये जाते रहे हैं। ऎसे साथियो की न केवल रचनाओं की उपेक्षा की जाती रही है, बल्कि उनके द्वारा संगठन के भीतर किये गये रचनात्मक कामों की भी उपेक्षा, आलोचना और असहयोग किया जाता रहा है। उन्हें इस हद तक मानसिक संत्रास दिया जाता है कि उनके सामने इनसे समझौता करने या आत्महत्या करने के सिवा कोई आसान रास्ता नहीं होता है। कुछ संगठनों के राज्य सम्मेलनों, जिला सम्मेलनों में पदों की चाह में मंच पर हाथापाई और गोली चलने तक के उदाहरण मौजूद हैं। इससे ज़्यादा निंदनीय और क्रूर स्थितियाँ, और क्या होगी ? यह संतोष की बात है कि अभी तक कोई जन हानी का उदाहरण सामने नहीं आया, लेकिन कभी आया भी तो आश्चर्यजनक न होगा।
लेकिन मैं फिर कहूँगा इन सब परिस्थितियों के बावजूद, प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार वही है, जो ऎसी तमाम टुच्ची और ओछी हरक़तों से पार पाकर भी दुनिया की बेहतरी के लिए लिखे और काम करे। मैं पहले ही कह चुका हूँ कि प्रगतिशील वामपंथी कार्यकर्ता या रचनाकार होने की क़ीमत क़दम-क़दम पर चुकानी पड़ती है और यह सिलसिला आख़िरी सांस तक ज़ारी रहता है।

ये बात सही है कि साम्राज्यावादी ताक़तें बहुत ज़्यादा ताक़तवर और साधन सम्पन्न हैं, क्योंकि सत्ता उनके क़ब्जे में है। वह समय-समय पर तमाम तरह के प्रलोभन दिखाती है, जो छद्म प्रगतिशील या जनवादी होते हैं वे इन प्रलोभानों को देख लार टपकाने लगते हैं। हालाँकि ये प्रलोभन छोटे-मोटे पद, पुरस्कार, और कई बार तो साहित्यिक आयोजनों में बुलावे भर ही होते हैं। लेकिन जिसे सत्ता द्वारा फैंकी हड्डी का टुकड़ा चबाने की लत लग जाती है, वह ऎसे मामूली लालच को भी त्याग नहीं पाता है और वह इनमें शामिल होने की कोई तार्किक वजह खोज लेता है।
साम्राज्यवादी सत्ता कभी भी समझौता नहीं करती है। वह किसी क़ीमत पर यह नहीं कहती है कि अगर आप हमारे आयोजन में शामिल होंगे तो हम आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को उनके गाँव, घर, खेत, जंगल, ज़मीन से खदेड़ना बंद कर देंगे। सत्ता हमेशा लालची और छद्म प्रगतिशीलों, जनवादियों को कभी कंडोम और कभी नक़ाब की तरह युज करती है। मैं समझता हूँ कि हाल ही में (10-11 जुलाई 09 को) छत्तीसगढ़ के रायपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित ‘ राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी’ आयोजन भी कुछ इसी तरह की मंशा के साथ आयोजित किया गया था।
अभी ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, सन 2000 में ही छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हुई है। स्थापना के बाद वहाँ की सरकारों ने समय-समय पर देशी-विदेशी पूँजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जो अनेक समझौते और वादे किये हैं उन्हीं को पूरा करने की उतावल की ख़ातिर आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों को खदेड़ने का काम ज़ोर-शोर से ज़ारी है।
यह आयोजन उसी रायपुर में आयोजित किया गया था, जहाँ बेवजह डॉ. विनायक सेन को दो बरस तक जेल में सलाखों के पीछे रखा गया। उसी राज्य में जहाँ दंतेवाड़ा प्रशासन द्वारा गुंडई ढंग से 17 मई 09 को गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का आश्रम तोड़ दिया गया। उसी राज्य में जिसमें पिछले चार बरसों से सतत सलवा जुडूम के मार्फत न सिर्फ़ आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों, बल्कि औरतों और बच्चों तक को उनके संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखा जा रहा है।
भूखे, मज़दूर, किसान और आदिवासी, जो अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों को हासिल करने को, जो अपने जंगल, ज़मीन, गाँव, घर और ज़िन्दगी बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। उन्हीं की माँ, बहन, बेटी, बहू, पत्नी के साथ कभी दिन के उजाले में और कभी रात के अंधेरे में सलवा जुडूम के विशेष पुलिस अधिकारी बलात्कार कर रहे हैं।

एक तरफ़ देश की सर्वोच्य न्यायालय के न्यायाधीश श्री अरिजीत पसायत और पी. सथसिवम, जुलाई 2008 को कहते हैं कि भारत में जैसी परिस्थितियाँ हैं उनमें शारीरिक दुर्व्यवहार की शिकार किसी महिला के बयान पर इस नियम के तहत कार्यवाही से इनकार करना कि इसकी पुष्टि करने के लिए कोई दूसरा सबूत नहीं है, घाव पर नमक छिड़कने जैसी बात है। परंपराओं से बंधे भारतीय समाज में कोई लड़की या महिला ऎसी किसी घटना को मानने तक के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होगी, जिससे उसके चरित्र पर कीचड़ उछलने की संभावना हो। पीड़िता के बयान की पुष्टि के लिए किसी दूसरे सबूत की ज़रूरत नहीं है, जिसमें डॉक्टर द्वारा पुष्टि भी शामिल है। दूसरी तरफ़ जब सर्वोच्य न्यायालय पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से कहा कि वह सलवा जुडूम के लोगों पर हत्या, बलात्कार और आगजनी के जो आरोप लगे हैं उनकी जाँच करे। लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘कुछ विशेष आरोपों की जाँच के दौरान जाँच दल को बलात्कार का कोई भी ऎसा मामला नहीं मिला, जिसका कोई सबूत हो।
जब न्यायाधीश अपने कथन में कह ही चुके हैं कि बलात्कार के मामले में पीड़िता का बयान ही पर्याप्त है, तब मानवाधिकार के सदस्यों को सबूत ढूंढ़ने की ज़रूत ही क्या थी ? पीड़िताओं के बयानों को ही सबूत मानना चाहिए था। तहलका (15 अगस्त 09) को जिन बलात्कार पीड़ित महिलाओं के बयान छपे हैं उन्हें पढ़ने के बाद किसी सबूत की ज़रूत महसूस करना अमानवीय है।
मैं उसी राज्य की बात कर रहा हूँ जिसमें मुक्तिबोध की किताब ‘भारतः इतिहास और संस्कृति’ आज तक प्रतिबंधित है। जिसमें चरण दास चोर 8 अगस्त 09 को प्रतिबंध लगाया गया है। जिसमें क़रीब 644 गाँव से आदिवासियों, किसानों और मज़दूरों खदेड़ा जा चुका है। जिसमें क़रीब पचास हज़ार से ज़्यादा लोगों को ज़बरन विस्थापित कर शिविरों में रहने को विवश किया जा रहा है, और वहाँ भी न उनकी बहू, बेटी, पत्नी की इज़्ज़त सुरक्षित है, न जान। जिस राज्य में दमन की कोई सीमा नहीं है। यह खेल काँग्रेस और भाजपा मिलकर खेल रही हैं। कार्पोरेट घरानों को ख़ुश करने के लिए यह सब किया जा रहा है, ऎसे राज्य के मुख्य मंत्री और उन सब लोगों के साथ आयोजन में शामिल होना, जो इस काम को अंजाम दे रहे हैं। मुझे लगता है कि इससे ज़्यादा किसी की चेतना का पतन नहीं हो सकता। यह बहुत ही शर्मनाक और घृणित काम है।
प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान आयोजन में कौन-कौन वामपंथी, जसम, जलेस और प्रलेसं के रचनाकार और मुखिया शामिल हुए ? समयांतर में छपे दोनों लेखों में उनके नामों का ज़िक्र नहीं हैं, जबकि होना चाहिए था। ताकि लोग उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह करे, जो शामिल हुए, न की संगठन की प्रगतिशीलता पर। मेरे पास शामिल हुए लोगों की कोई आधिकारिक सूचना या जानकारी नहीं है। लेकिन श्री प्रणय कृष्ण, श्री पंकज चतुर्वेदी के लेख और पंकज बिष्ट के संपादकीय पर अविश्वास की भी तो कोई वजह नहीं है। फिर प्रलेसं के ही कई साथियो ने इस संबंध में मुझसे बात की है और अपना रोष व्यक्त किया है।

ऎसी स्थिति में इस पूरे मामले में मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि म.प्र. प्रलेसं, की इन्दौर इकाई का सचिव होने के नाते, और म.प्र. प्रलेसं का राज्य उपमासचिव होने के नाते, उस आयोजन में अगर जसम, जलेस, प्रलेसं के रचानाकार शामिल हुए हैं , तो मैं संगठनों की नहीं, उन रचनाकारों की कड़ी नींदा करता हूँ जो शामिल हुए हैं, और उनकी प्रगतिशीलता पर संदेह व्यक्त करता हूँ।
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11 (म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com