गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

बोधिसत्व की कविता

माँ का नाच

कई स्त्रियाँ थीं
नाच रही थीं, गाते हुए ।

वे खेत में नाच रही थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच ।

कोई पीली साडी पहने थी
कोई धानी
कोई गुलाबी
कोई जैसे जोगन ,
सब नाचते हुए मदद कर रही थीं
एक दूसरे की
थोडी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से ।

कुछ देर बाद बारी आयी माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत ।

माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
जो नाच चुकी थीं वे भी , अचंभित
मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ

मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान

वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।

(बोधिसत्व , हरिओम राजोरिया , विवेक गुप्ता की इन कविताओं पर कुमार अम्बुज जी की टिप्पणियां बाद में पोस्ट करूँगा अभी आप कवितायें पढ़ें और अपनी टिप्पणियां दें । )

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

विवेक गुप्ता की कविता



वह एक घर था एसा

वह एक घर था एसा
जिसकी छत थी निरंतर झरती हुई
दीवारें कंपकंपाती थीं धमक से
जिनमे हिलती हुई चौखटें जडी थीं
और दरवाजे नहीं थे
रहने के लिए घर में
घर के लोगों ने उन पर टाट के झीने परदे लटका दिए थे

वह एक घर था एसा
कि बकरियां आतीं तो चबाने लगतीं टाट
बिल्लियों के लिए टाट कोई बाधा नहीं थी
रस्ते चलते मवेशी यूँ ही झांक जाते थे
जैसे पूछते हुए 'क्या हो रहा है '
मुर्गियां अपने बच्चों की पूरी पलटन के साथ
टहलने चली आतीं घर में
चूजे कुंकियाते , फुदकते हुए बर्तनों और बिस्तरों में घुस जाते
घर के लोग काम छोड़कर पहले निकालते उन्हें
कि कहीं पैर न पड़ जाए उन पर
शाम को खाना पकने कि गंध पाकर सूंघते हुए आते कुत्ते
झांकते इस तरह कि अभी देर हो थोडी
तो आऊं गली का एक चक्कर लगाकर

हवा के लिए कोई रोकटोक नहीं थी घर में
परदों को झंडों की तरह लहराती हुई
धुल के साथ-साथ वह आती-जाती रहती थी
बारिश होती
तो बूँदें घुस आतीं भीतर तक
फर्श पर टपाटप पड़ती हुई
पूरे घर और उसमें रहनेवालों को भिगोती
भीतर एक धुआं सा भरा रहता घर में
सुबह उठो तो कुछ दिखाई नहीं देता था
देखते रहने पर धीरे-धीरे खुलता था घर

घर के लोग बने रहते थे घर में
भीगते छींकते खांसते तपते
ठिठुरकर
एक दूसरे को टटोलते हुए
अक्सर वे चुपचाप दुबके रहते बिस्तरों में
बाहर की इतनी आवाजें इतनी आवाजाही थी घर में
कि घर के लोग आपस में बहुत काम बोल पाते थे
बोलते तो बहुत धीमे फुसफुसाकर
आवाज करने में एक डर-सा लगता था
वे पैर दबाकर चलते
जैसे नींद में चल रहे हों तैरते हुए
सामान धीरे-धीरे उठाते रखते बेआवाज

बार-बार सामान उठाते पटकते
उसे बारिश से बचाते-बचाते
आ जाती थीं ठण्ड
बर्तनों में जम जाता था पाला
उसे साफ करते-करते आ जाता पतझड़
धूल और पत्तों से भर जाता था घर
बुहारते-बुहारते चलने लगती थी लू
जब दोपहर से सन्नाटे में घर भांय-भांय बजाने लगता
लू के थपेडों के बीच
वे पुराने काम निकालकर बैठ जाते
संदूक खोलकर कपडे झाड़ते दोबारा तहें जमाते हुए
खटते-खटते काट देते गर्मियां
इस तरह करते फिर बारिश आने का इंतजार ।