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जितेन्द्र चौहान मेरे मित्र हैं। वे बेहद संवेदनशील कवि हैं। उनकी प्रतिबद्धता की मैं क़द्र करता हूँ । वे नईदुनिया इंदौर में कार्यरत हैं। उनका कविता संग्रह टांड से आवाज हाल ही में आया है । उनकी कई कविताएँ मुझे पसंद है। फिलहाल उनकी एक कविता आपके लिए यहाँ प्रस्तुत है। सबसे सुन्दर स्त्रीमारिया शारापोवामैंने मोनालिसा को नहीं देखा नहीं देखा मधुबाला को हाँ मैंने देखा है तुम्हे टेनिस कोर्ट में हिरणी सी चपलता दिखाते हुए डॉज-शोट को खेलते हुए तुम्हारे ताम्बई चेहरे पर तैरती है मुस्कराहट तब तुम मुझे पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री लगती हो मारिया शारापोवा अपने पीठ दर्द के साथ जब तुम हार्डकोर्ट में उतरती हो फतह के लिए पीठ दर्द से रातभर करवटें बदलता हूँ मैं तुम्हारे पोस्टर के सामने मारिया शारापोवा तुम फाइनल में हराने के बादजिस निश्छल मुस्कराहट के साथ अपनी प्रतिद्वन्द्वी से हाथ मिलाती हो खिलखिलाते हुए पोज देती हो तब तुम मुझे पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री लगती हो ।
मैं संतूर नहीं बजातासंतूर नहीं बजाता नहीं बजाता तो नहीं बजाता पर क्या बात कि नहीं बजाता है तो कितना बेतुका आघात कि मैं संतूर नहीं बजाता कैसे इतना जीवन गुजर गया मुझे खयाल तक नहीं आया कि मैं संतूर नहीं बजाता !और होते-होते हालत आज ये हुई कि मैं इतनी बड़ी दुनिया में संतूर नहीं बजाता !कोई संगीतज्ञ नहीं हूँ मगर जानना है मुझे आख़िर क्या था वह जो मेरे और संतूर के बिच अडा रहा यह नहीं कि मैं बजाना चाहता हूँ जानना चाहता भर हूँ आख़िर वह क्या था मेरे और संतूर के बीच कि मैं दूर-दूर तक संतूर नहीं बजाता।
जन्म : ११ नव१९२९ जर्मनी। १९६५-१९६६ के दौरान भारत यात्रा पर आये थे। अनुवाद: सुरेश सलिल रांडोबात करना आसान है लेकिन शब्द खाए नहीं जा सकते सो रोटी पकाओ रोटी पकाना मुश्किल है सो नानबाई बन जाओ लेकिन रोटी में रहा नहीं जा सकता सो घर बनाओ घर बनाना मुश्किल है सो राज-मिस्त्री बन जाओ लेकिन घर पहाड़ पर नहीं बनाया जा सकता सो पहाड़ खिसकाओपहाड़ खिसकाना मुश्किल है सो पैगम्बर बन जाओ लेकिन विचार को तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते सो बात करो बात करना मुश्किल है सो वह हो जाओ जो हो और अपने आप में कुड्बुदाते रहो ।
नवीन सागर का जन्म २९.११.१९४८ को सागर म प्र में हुआ था। १४.०४.२००० को उनका आकस्मिक निधन हो गया। वे बहुत अच्छे कवि एवं कहानीकार थे। उनकी एक कविता यहाँ प्रस्तुत है। संदिग्ध इस शहर में जिनके मकान हैं वे अगर उनको मकानों में न रहने दें जिनके नहीं हैं बहुत कम लोग मकानों में रह जायेंगे। जिनके मकान हैं वे मजबूती से दरवाजे बंद करते हैं खिड़की से सतर्क झांकते हैंताले जड़ते हैं सुई की नोक बराबर भूमि के लिए लड़ते हैं। जिनके मकान नहीं हैं वे बहार से झांकते हैं दरवाजों पर ठिठकते हैं झिझकते हुए खिड़कियों से हटते हैं जिनके मकान नहीं हैं वे हर मकान के बाहर संदिग्ध हैं वे हर मकान को अपने मकान की याद में देखते हैं.