एक
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।
आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि या
कि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।
इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।
शंख सीपियों का पड़ौस हैहंस उड़ें अढ़ाई कोस है
घिसी-पिटी लीकों पर चलना
आँख मींच मक्खियाँ निगलना।
अटक रहा है थूक गले में
कैसे और बिलोयें कब तक
मृतकों के मुख में गंगाजल
टोयें तो टोयें कब तक।
दो
चल पड़ी है
बैलगाड़ी
मण्डियों की ओर
इन गडारों से
नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी
ओंठ पर
मुस्कान लेकर
आज होरी
चल पड़ा है गुनगुनाता
मण्डियों की ओर
इन गडारों से।
लगी भुगतान बिलों परअंगुठे की निशानी
ज्यों कि कुल्हों पर चुभी
ख़ुद की पिरानी
इस बरस भी
तमतमाते, स्याह ये चेहरे
बैरंग लौटे हैंइन गडारों से।
रमा त्यागी ' एकाकी ' की कविताऍं
-
एक
*पहली कविता *
पहली कविता
जिसने भी लिखी होगी
दर्द में लिखी होगी
या शायद प्रेम में !
प्रेम कविताएँ
सिर्फ़ उन्हें ही पसंद आती हैं
जो प्रेम...
3 दिन पहले
7 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा रचनायें हैं भाई…
vakai prmod bhai ne umda navgeet likhe.
बहादुर जी,
वाकई प्रमोद जी के दोनों नवगीत बहुत ही अच्छे हैं। चाहे खुद को रूढियों का रोना हो या होरी का तमतमाया चेहरा, दर्द की सशक्त अभिव्यक्ती।
श्री प्रमोद जी को बधाईयाँ और श्री बहादुर पटेल जी आपका आभार।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
प्रमोदजी के गीतों पर केवल टिप पनी से काम नहीं चलेगा उन पर विस्तार से बात करने की ज़रूर है , उनका जान हमारे होने तक सालता रहेगा
सत्यनारायण पटेल
बिजूका फिल्म क्लब , इंदौर
इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।
उम्दा. लेकिन जैसा सत्यनारायण पटेल ने कहा कि इन पर विस्तार से बात ज़रूरी है ताकि यह रचनाएँ अपने सही अर्थों में लोगो तक पहुँच सकें.
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।
आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि या
कि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।
बहुत ही गहरे लगे प्रमोद जी के नवगीत .....उन्हें बधाई .....और आपको भी अच्छी रचनायें .....!!
अच्छी रचनाएं हैं. बधाई. साहित्य में उपेक्षित हो रहे नवगीतों में इन दिनों एक बड़ा शुन्य दिखाई देता है, नईमजी के जाने से यह स्पेस और बढ़ गया है. भाई प्रमोद के नवगीत किंचित उस स्पेस की भरपाई न हो, प्रारम्भ तो है.
-प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
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