सोमवार, 10 मई 2010

एकांत श्रीवास्तव की कविता

बीज थी हमारी इच्छाएँ

बीज थी हमारी इच्छाएँ
जिन्हें मिली नहीं गीली ज़मीन
हारिल थे हमारे स्वप्न भटकते यहाँ-वहाँ
मरुस्थल थे हमारे दिन
जिन पर झुका नहीं कोई मेघ
अँधा कुआ थी हमारी रात
जहाँ किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आती थी

समुद्र के ऊपर
तट के लिए फडफडाता
पक्षी था हमारा प्रेम
जो हर बार थककर
समुद्र में गिर जाता था

हम वाध्य की तरह बजना चाहते थे
घटना चाहते थे घटनाओं की तरह
मगर हमारी तारीख़ें कैलेण्डर से बाहर थी ।

5 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर रचना जी. धन्यवाद

प्रदीप जिलवाने ने कहा…

लम्‍बे समय बाद आपने इस ब्‍लॉग पर चुप्‍पी तोड़ी है. एकांतजी मेरे भी प्रिय कवि हैं. बधाई.

Bahadur Patel ने कहा…

bhatiyaji apko dhanywaad.
prdeep apko dhanywaad tatha samavartan me achchhi kavitaon ke liye badhai.

Ashok Kumar pandey ने कहा…

बहुत दिन बाद पोस्ट लगायी बहादुर भाई…लेकिन शानदार कविता

प्रदीप कांत ने कहा…

समुद्र के ऊपर
तट के लिए फडफडाता
पक्षी था हमारा प्रेम
जो हर बार थककर
समुद्र में गिर जाता था

बहुत ही बढिया कविता