आलोक कुमार मिश्रा कविताऍं
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*1 - कुचक्र*
छतें होती थीं आकाशगंगा के बीच का द्वीप
जहाँ बैठकर गिनते थे उठती-गिरती अनंत लहरें
खिड़कियाँ थीं डाक सरीखी
जो पहुँचा देती थी...
21 घंटे पहले
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