बीज थी हमारी इच्छाएँ
बीज थी हमारी इच्छाएँ
जिन्हें मिली नहीं गीली ज़मीन
हारिल थे हमारे स्वप्न भटकते यहाँ-वहाँ
मरुस्थल थे हमारे दिन
जिन पर झुका नहीं कोई मेघ
अँधा कुआ थी हमारी रात
जहाँ किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आती थी
समुद्र के ऊपर
तट के लिए फडफडाता
पक्षी था हमारा प्रेम
जो हर बार थककर
समुद्र में गिर जाता था
हम वाध्य की तरह बजना चाहते थे
घटना चाहते थे घटनाओं की तरह
मगर हमारी तारीख़ें कैलेण्डर से बाहर थी ।
हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ
-
*चट न लो फ़ैसला*
-----------------------
आज शाम जाकर मिला दोस्त शिवराज से
अरसे से इधर फोन पर लगते थे नाराज़ से
दुआ-सलाम इधर-उधर की बात
कहने लगे छोड़ दिय...
2 हफ़्ते पहले